शनिवार, 25 दिसंबर 2010

अजीबोगरीब उलझन में फंस गया गुर्जर आंदोलन

कांग्रेसी गुर्जरों के लिए है इधर कुआं उधर खाई
राजस्थान हाईकोर्ट के फैसले के बाद गुर्जर आरक्षण आंदोलन अजीबोगरीब उलझन में फंस गया है। गुत्थी कानूनी तो है ही, राजनीतिक दखल भी बुरी तरह घुस जाने के कारण आंदोलन दो राहे पर खड़ा है।
अजमेर का ही उदाहरण ही लें। एक ओर जहां पूरा प्रदेश गुर्जर आंदोलन से गरमाया हुआ है, वहीं अजमेर में यह उतना जोर नहीं पकड़ पा रहा, जितना कि यहां गुर्जरों की बहुलता के मद्देनजर होना चाहिए था। खालिस समाज की राजनीति करने वाले और भाजपा से जुड़े गुर्जर नेताओं को तो कोई परेशानी नहीं है, लेकिन अधिसंख्य कांग्रेसी गुर्जर नेताओं के लिए इधर कुआं उधर खाई वाली स्थिति बनी हुई है। दो विकल्पों के बीच पैंडुलम की तरह झूलते इन नेताओं को डर है कि सरकार के खिलाफ चलाए जा रहे आंदोलन में शिरकत करते हैं तो पार्टी में कैरियर प्रभावित हो जाएगा। आगे मिलने वाले किसी राजनीतिक पद से वंचित रह जाएंगे। और कैरियर ही नहीं रहा तो क्या खा कर समाज की राजनीति करेंगे। समाज भी तो आखिर पावरफुल का साथ देता है। दूसरी ओर अगर सरकार का साथ देते हुए चुप बैठे रहते हैं तो समाज में जनाधार खत्म हो जाएगा। जिस समाज के दम पर नेतागिरी कर रहे हैं, वही कह देगा जब समाज के लिए मरने-मारने की स्थिति है, तब भी अगर समाज का साथ नहीं देंगे तो फिर क्यों समाज उनके साथ रहे।
कांग्रेसियों को आंदोलन में खुल कर सामने आने में एक दिक्कत ये भी है कि अजमेर में आंदोलन की अगुवाई कर रहे ओम प्रकाश भड़ाणा ने भले ही किसी राजनीतिक दल के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर नहीं की है, मगर उनके आका कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला तो समाज की नेतागिरी करते-करते राजनीति की चौसर में फंस चुके हैं। ऐसे में हों भले ही कांग्रेसी समाज की मांग के साथ, मगर बैंसला के इशारे पर हो रहे आंदोलन में, जिसकी सफलता का श्रेय बैंसला के खाते में जाना हो, उसमें कैसे शामिल हो जाएं। भडाणा ने तो साफ ही कह रखा है कि किसी की भले ही किसी भी पार्टी विशेष से प्रतिबद्धता हो, मगर यह आंदोलन तो बैंसला की अगुवाई में ही चलाया जा रहा है। कांग्रसियों को दूसरा डर अजमेर में अपने आका केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट का है कि कहीं वे नाराज न हो जाएं। ज्ञातव्य है कि पायलट ने तो हाल ही सरकार के समर्थक गुर्जर नेताओं के साथ मिल कर एक विज्ञापन जारी किया था, जिसमें आंदोलन का समाप्त कर वार्ता के जरिए समाधान की अपील की थी। ऐसे में भला उनके अनुयायी कैसे खुल कर सामने आ सकते हैं। उनके आंदोलन में शिकरत करने से दिल्ली में सचिन के नंबर कम होते हैं कि आखिर उनकी जिले पर पकड़ कितनी है। कुल मिला कर अपनी-अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं की वजह से अजमेर में आंदोलन उतना दमदार नहीं हो पाया, जितना होना चाहिए था।
असल में कोई भी समाज तभी कामयाब हो पाता है, जबकि उनका नेता केवल समाज के प्रति ही जवाबदेह हो। किसी पार्टी से उसका कोई लेना-देना न हो। आपको याद होगा जाट समाज का आरक्षण आंदोलन, जो पूरी तरह गैर राजनीतिक शख्सियत ज्ञान प्रकाश पिलानिया के नेतृत्व में हुआ और दोनों ही दलों के नेताओं के समर्थन से उन्हें कामयाबी हासिल हो गई। उनकी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं थी, मगर दोनों दलों के नेताओं ने उनका नेतृत्व स्वीकार किया था। मगर उस आंदोलन और गुर्जर आंदोलन में फर्क है। जाटों को इतनी शहादत नहीं देनी पड़ी थी। पहली बार अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल करने की मांग इतने बड़े पैमाने पर की गई थी और कोर्ट का कोई चक्कर नहीं था, इस कारण थोड़ी-बहुत जद्दोजहद के बाद मांग पूरी हो गई। आंदोलन समाप्त होने के बाद जरूर पिलानिया ने भाजपा का पल्लू थाम लिया था, मगर इससे पहले तो वे निष्पक्ष बने रहे थे। बैंसला के साथ ऐसा नहीं है। वे सफलता के शिखर पर पहुंचने से पहले ही फिसल गए और यही वजह रही कि समाज के लिए सर्वाधिक संघर्ष कर खून पसीना बहाने के बाद भी विरोधी राजनीतिक कार्यकर्ताओं का विश्वास खो बैठे। ऐसा कदाचित इस कारण भी हुआ होगा कि पिलानिया ने नेताओं के बीच ही सरकारी नौकरी की, इस कारण राजनीति की बारीकियां समझते थे, जब कि बैंसला सेना में रहने के कारण केवल लाठी-गोली की भाषा ही समझते थे, जिसके दम पर आंदोलन इतनी दूर तक पहुंचने में कामयाब हुआ, मगर सियासी समझ कम होने के कारण वसुंधरा के चक्कर में आ गए। बाद में तो यहां तक कहा जाने लगा कि बैंसला के तार पहले से वसुंधरा राजे से जुड़े हुए थे।
बहरहाल, अकेले राजनीतिक चक्कर में ही नहीं, बल्कि गुर्जर आंदोलन तो कानूनी पेचीदगी में भी उलझ गया है। सरकार भले ही आरक्षण देने को तैयार हो, तैयार क्या हो, उसने तो दे ही दिया था, मगर हाईकोर्ट की बाधा सामने आ गई है। उसकी आड़ में तो सरकार भी यह कहने की स्थिति में है कि वह तो आरक्षण देना चाहती है, मगर कोर्ट के आदेश के आगे तो वह बेबस ही है। अब एक ही चारा है, या तो सरकार एक लाख भर्तियां रोके, या फिर ट्रैक पर आ चुके गुर्जरों से टकराए। गुर्जर नेता भी मजबूर हैं। सरकार की मजबूरी को ध्यान में रख कर समझौता करते हैं तो समाज की नाराजगी भारी पड़ सकती है।

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