बुधवार, 1 दिसंबर 2010

कांग्रेस में तो केवल नेहरू-गांधी का ही परिवार चलेगा

कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ने तो बगावती तेवर दिखा कर भाजपा हाईकमान को झुकने को मजबूर कर दिया, मगर खुद एक परिवार की धुरी पर ही केन्द्रित कांग्रेस ने आंध्रप्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय राजशेखर रेड्डी के पुत्र सांसद वाई. एस. जगनमोहन की राजनीतिक विरासत की मांग को ठुकरा दिया। और उसका नतीजा ये रहा कि जगन ने आखिरकार संसद के साथ पार्टी ही छोड़ दी।
असल में परिवारवाद से उत्पन्न यह समस्या दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में काफी पुरानी है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण कांग्रेस ही है, जिसमें जवाहर लाल नेहरू के बाद इंदिरा गांधी, इंदिरा गांधी के बाद राजीव गांधी, राजीव गांधी के बाद सोनिया गांधी और अब सोनिया के बाद राहुल गांधी की तैयारी। नेहरू के बाद आज तक गैर कांग्रेसी इसी मुद्दे को लेकर चिल्लाते रहे हैं, मगर आज तक इसका तोड़ नहीं निकल पाया है। यह सवाल दिमाग की दही कर देता है कि आखिर लोकतांत्रिक तरीके से सरकार बनाने वाले इस देश में मतदाता व्यक्तिवाद और परिवारवाद को ही क्यों तवज्जो देता है? ऐसा प्रतीत होता है कि सैकड़ों साल तक राजशाही में रहने की आदत के कारण आजादी के बाद कायम हुए लोकतंत्र में भी हम सामंतवाद, परिवारवाद और व्यक्तिवाद से मुक्त नहीं हो पाए हैं। हम लाख आलोचना करें परिवारवाद व व्यक्तिवाद की, मगर चलते उसी पर हैं। आंध्रप्रदेश में तो एनटीआर ने तेलुगुदेशम के रूप में क्षेत्रवाद को जन्म दिया, जो उनकी मृत्यु के बाद परिवारवाद में तब्दील हो गया। अकेले आंध्र ही क्यों और राज्यों में भी परिवारवाद या व्यक्तिवादी राजनीति ही हावी है। असल तथ्य तो ये है कि जिन राज्यों में कांग्रेस व भाजपा के बीच सीधा मुकाबला होता है, वहां अलग से कोई परिवार नहीं पनप पाया, जिनमें राजस्थान व मध्यप्रदेश का उदाहरण दिया जा सकता है। भाजपा में आमतौर पर परिवारवाद नहीं है और कांग्रेस में नेहरू-गांधी परिवार के अतिरिक्त किसी और को पनपने नहीं दिया जाता। अगर पनपता भी है तो स्वतंत्र रूप से नहीं। आंध्रप्रदेश में जगन मोहन ने उसका उदाहरण बनने की कोशिश की, जिसे कांग्रेस ने नकार दिया। जिन राज्यों में गैर कांग्रेसी और गैर भाजपाई पनपे हैं वे या तो परिवारवाद या व्यक्तिवाद के पोषक रहे हैं। जम्मू-कश्मीर में फारुख अब्दुल्ला, बिहार में लालू प्रसाद, हरियाणा में देवीलाल के परिवार इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। रहा सवाल नितीश कुमार व मायावती का तो वे भले ही अलग पार्टी बना कर चल रहे हैं, मगर उनकी राजनीति भी व्यक्तिवादी तो है ही।
परिवारवाद अकेले राज्यों में ही नहीं, लोकसभा में भी है। पिछले लोकसभा चुनाव में राजनीतिक दिग्गजों के कम से कम 35 परिजन या रिश्तेदार चुने गए। इनमें दूर के रिश्तेदारों को भी शामिल कर लें तो यह संख्या अद्र्धशतक के पार पहुंचती है। नेहरू-गांधी परिवार के राहुल गांधी और वरुण गांधी, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाई एस राजशेखर रेड्डी के पुत्र जगन मोहन, कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा के बेटे बी वाई राघवेंद्र, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि के बेटे एमके अझागिरी और उनकी बेटी कानिमोझी तथा भतीजा दयानिधि मारन, दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित, हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा के बेटे दीपेंद्र सिंह हुड्डा, राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के बेटे दुष्यंत सिंह, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री हेमवंती नंदन बहुगुणा के बेटे और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी के भाई विजय बहुगुणा, राकांपा के अध्यक्ष शरद पवार की बेटी सुप्रिया सूले और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश यादव, चौधरी चरण सिंह के बेटे व रालोद अध्यक्ष अजीत सिंह के बेटे जयंत चौधरी सहित नवीन जिंदल, सचिन पायलट, जितिन प्रसाद, कुमारी शैलजा, अगाथा संगमा, मिलिंद देवड़ा, प्रिया दत्त, नीलेष राणे, समीर भुजबल, ज्योति मिर्धा, मनीश तिवारी, एचडी कुमार स्वामी और दीप गोगोई, सभी परिवादवाद से ही निकले हैं।
इन सब उदाहरणों को देख कर तो जगन मोहन का पारीवारिक विरासत का दावा गलत नजर नहीं आता, मगर कांग्रेस में तो केवल नेहरू-गांधी परिवार का एकाधिकार है, वहां किसी और को परिवारवाद के आधार पर कैसे पनपने दिया जा सकता है, वह भी मुख्यमंत्री जैसे पद पर। हालांकि यह सही है कि हैलिकॉप्टर दुर्घटना में जब वाई एस राजशेखर रेड्डी की मृत्यु हो गई थी तो 140 विधायकों ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाने का समर्थन किया था, लेकिन अब सिर्फ 20 से 25 विधायक उनके साथ बताए जाते हैं। चिरंजीवी की प्रजाराज्यम के समर्थन के कारण भले ही वे सरकार को गिराने में कामयाब न हो पाएं, कांग्रेस मतदाताओं का धु्रवीकरण में तो कामयाब हो ही जाएंगे।

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