सोमवार, 18 अप्रैल 2011

बेबाकी से विवादित हो रहे हैं अन्ना हजारे


सत्ता के शिखर पर व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकने के लिए मीडिया के सहयोग से मिले अपार जनसमर्थन के बूते सरकार को जन लोकपाल बिल बनाने को मजबूर कर देने वाले प्रख्यात समाजसेवी और गांधीवादी अन्ना हजारे एक और गांधी के रूप में स्थापित तो हो गए, मगर हर विषय पर क्रीज से हट कर बेबाकी से बोलने की वजह से विवादित भी होते जा रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि जिस पवित्र मकसद से उन्होंने अहिंसात्मक आंदोलन छेड़ा, उसे कामयाबी मिली। इसमें भी कोई दोराय नहीं कि आंदोलन की शुरुआत से लेकर सफलता तक उन्होंने देश की वर्तमान राजनीति पर जो बयान दिए हैं, उनमें काफी कुछ सच्चाई है, मगर उनकी भाषा-शैली से यह अहसास होने लगा है कि वे खुद को ऐसे मुकाम पर विराजमान हुआ मान रहे हैं, जहां से वे किसी के भी बारे में कुछ कहने की हैसियत में आ गए हैं। इसी का परिणाम है कि उनके खिलाफ प्रतिक्रियाएं भी उभर कर आ रही हैं।
वस्तुत: उन्होंने जिस तरह से सरकार को जन लोकपाल बिल बनाने को मजबूर किया है, वह उनके पाक-साफ और नि:स्वार्थ होने की वजह से ही संभव हो पाया। फिर भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता की भावना को मुखर करते हुए योग गुरू बाबा रामदेव ने जो मुहिम छेड़ी, उससे एक ऐसा राष्ट्रीय धरातल बन गया, जिस पर खड़े हो कर जन लोकपाल बिल के लिए सरकार को झुकाना आसान हो गया। और इसमें मीडिया ने अतिरिक्त उत्साह दिखाते हुए मुहिम को इतनी तेज धार दी कि सरकार बुरी तरह से घिर गई। यहां तक तो सब ठीक था, लेकिन जैसे ही समझौता हुआ और समिति का गठन हुआ, विवादों की शुरुआत हो गई। उन्हें कुछ शीर्षस्थ लोगों ने तो जन्म दिया ही, खुद अन्ना हजारे ने भी कुछ ऐसे बयान दे डाले, जिसकी वजह से पलटवार शुरू हो गए। निश्चित रूप से इसमें मीडिया की भी अहम भूमिका रही। जिस मीडिया ने अन्ना को भगवान बना दिया, उसी ने उनके कपड़े भी फाडऩा शुरू कर दिया है।
सबसे पहले जनता की ओर से शामिल पांच सदस्यों में दो के पिता-पुत्र होने पर ऐतराज किया गया। जिन बाबा रामदेव ने दो दिन पहले अन्ना के मंच पर नृत्य करके समर्थन दिया था, उन्होंने ही भाई-भतीजावाद पर अंगुली उठाई। हालांकि उन्होंने रिटायर्ड आईपीएस किरण बेदी को समिति में शामिल नहीं करने पर भी नाराजगी दिखाई, मगर संदेश ये गया कि वे स्वयं उस समिति में शामिल होना चाहते थे। इस पर समिति के सह अध्यक्ष पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण ने पटलवार करते हुए कहा कि समिति में योग की नहीं, कानून की समझ रखने वालों की जरूरत है। जिस योग के दम पर बाबा रामदेव करोड़ों लोगों के पूजनीय माने जाते हैं, उसी योग को केवल इसी कारण जलील होना पड़ा, क्योंकि बाबा ने अतिक्रमण करने का दुस्साहस शुरू कर दिया था। हालांकि बाबा दूसरे दिन पलट गए, मगर गंदगी की शुरुआत तो हो ही गई। बाबा के भाई-भतीजावाद के आरोप को भले ही अन्ना ने यह कह कर खारिज कर दिया कि समिति में कानूनी विशेषज्ञों का होना जरूरी है, मगर वे इसका कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे पाए कि पिता-पुत्र शांतिभूषण व प्रशांतभूषण में से किसी एक को छोड़ कर किसी और कानूनविद् को मौका क्यों नहीं दिया गया। हालांकि कहा ये गया कि समिति में बहस वे ही तो कर पाएंगे, जिन्होंने जन लोकपाल का मसौदा तैयार किया है।
विवाद तब और ज्यादा हो गए, जब अन्ना ने राजनीति के अन्य विषयों पर भी बेबाकी से बोलना शुरू कर दिया। असल में हुआ सिर्फ इतना कि अन्ना कोई कूटनीतिज्ञ तो हैं नहीं कि तोल-मोल कर बोलते, दूसरा ये कि मीडिया भी अपनी फितरत से बाज नहीं आता। उसने ऐसे सवाल उठाए, जिन पर खुल कर बोलना अन्ना को भारी पड़ गया। इसकी एक वजह ये भी है कि किसी कृत्य की वजह से शिखर पर पहुंचे शख्स से हम हर समस्या का समाधान पाने की उम्मीद करते हैं। पत्रकारों के सवालों का जवाब देते हुए अन्ना ने नरेन्द्र मोदी की तारीफ तो की थी गुजरात में तैयार नए विकास मॉडल की वजह से, मगर इससे धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों को आग लग गई। उन्होंने गुजरात में कत्लेआम करने के आरोप से घिरे मोदी की तारीफ किए जाने पर कड़ा ऐतराज दर्ज करवाया। बाद में अन्ना को सफाई देनी पड़ गई। सवाल ये उठता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सफल आंदोलन करने की बिना पर क्या अन्ना को देश के नेताओं को प्रमाण पत्र देने का अधिकार मिल गया है?
अन्ना के उस बयान पर भी विवाद हुआ, जिसमें उन्होंने सभी राजनेताओं को भ्रष्ट करार दे दिया था। उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अलावा को सभी मंत्रियों को ही भ्रष्ट करार दे दिया। इस पर जब उनसे पूछा गया कि तो फिर समिति में शामिल किए जाने योग्य एक भी मंत्री नहीं है, इस पर वे बोले में जो अपेक्षाकृत कम भ्रष्ट होगा, उसे लिया जाना चाहिए। बहरहाल, अन्ना की सभी नेताओं को एक ही लाठी से हांकने की हरकत कई नेताओं को नागवार गुजरी। भाजपा की ओर से प्रकाश जावड़ेकर ने साफ कहा कि पार्टी लोकपाल बिल के मामले में उनके साथ है, लेकिन उनकी हर बात से सहमत नहीं है। भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवानी ने इतना तक कहा कि हर नेता को भ्रष्ट कहना लोकतंत्र की अवमानना है। उन्होंने कहा कि जो लोग राजनीति व राजनेताओं के खिलाफ घृणा का माहौल बना रहे हैं वे लोकतंत्र को नुकसान पहुंचा रहे हैं। मध्यप्रदेश भाजपा अध्यक्ष प्रभात झा ने यहां तक कह दिया कि अन्ना ईमानदारी का विश्वविद्यालय नहीं चलाते। राजनेताओं को उनके सर्टीफिकेट की जरूरत नहीं है। हालांकि यह बात सही है कि आज नेता शब्द गाली की माफिक हो गया है, मगर लोकतंत्र में उन्हीं नेताओं में से श्रेष्ठ को चुन कर जनता सरकार बनाती है। यदि इस प्रकार हम नेता जाति मात्र को गाली बक कर नफरत का माहौल बनाएंगे तो कोई आश्चर्य नहीं कि देश में ऐसी क्रांति हो जाए, जिससे अराजकता फैल जाए। इस बारे में प्रख्यात लेखिका मृणाल पांड ने तो यहां तक आशंका जताई है कि कहीं ऐसा करके हम किसी सैनिक तानाशाह को तो नहीं न्यौत रहे हैं।
-गिरधर तेजवानी

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

यानि कि वसुंधरा राजे को फ्री हैंड तो नहीं दिया गया है

संगठन की कमान अब भी संघ के हाथों में है
हालांकि यह सही है कि भाजपा हाईकमान के पास पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का कोई तोड़ नहीं, इस कारण मजबूरी में उन्हें फिर से विधानसभा में विपक्ष का नेता बनाना पड़ा, मगर उनकी विरोधी लॉबी भी चुप नहीं बैठी है, यही वजह है कि संगठन में वसुंधरा लॉबी को नजरअंदाज कर यह साबित कर दिया गया है कि पार्टी दोनों के बीच संतुलन बैठा कर ही चलना चाहती है।
उल्लेखनीय है कि लम्बी जद्दोजहद के बाद जब वसुंधरा को फिर से विपक्ष नेता बनाया गया तो उन्हें राजस्थान से रुखसत करने का सपना देख रहे भाजपा नेताओं के सीनों पर सांप लौटने लगे थे। रही सही कसर वसुंधरा के तेवरों ने कर दी। सब जानते हैं कि वसुंधरा किस प्रकार आंधी की माफिक पूरे राज्य में छा जाने की तैयारी कर रही हैं। ऐसे में विरोधी लॉबी ने हाईकमान पर दबाव बनाना शुरू कर दिया कि चलो विधायक दल में बहुमत भले ही वसुंधरा के पास हो, मगर संगठन में तो उनको तवज्जो दी ही जा सकती है। असल में इसी विरोधी लॉबी के कारण ही भाजपा की कुछ सीटें खराब हुई थीं और वसुंधरा राजे दुबारा सरकार बनाने में नाकमयाब हो गईं। भले ही भाजपाई इस तथ्य को स्वीकार न करें, मगर मन ही मन वे जानते हैं कि प्रदेश की कितनी सीटों पर संघ और भाजपा के बीच टकराव की नौबत आई थी। वसुंधरा लॉबी तो चाहती ही ये थी कि वे फिर राजस्थान का रुख न करें, मगर एक तो अंतर्विरोध के बावजूद काफी संख्या में भाजपा विधायक जीत कर आ गए, दूसरा अधिसंख्य विधायक वसुंधरा खेमे के ही थे। इस कारण वसुंधरा का पलड़ा भारी हो गया। सब जानते हैं कि हाईकमान पार्टी की दुर्दशा के लिए मूल रूप से वसुंधरा राजे के साथ पार्टी में आई नई अपसंस्कृति को ही दोषी मानता था, इस कारण उसने सबसे पहले वसुध्ंारा पर इस्तीफे का दबाव बनाया। वसुंधरा को कितना जोर आया पद छोडऩे में, यह भी किसी से छिपा हुआ नहीं है। वे जानती थीं कि ऐसा करके हाईकमान उनसे राजस्थान छुड़वाना चाहता है। इसी कारण बड़े ही मार्मिक शब्दों में कहती थीं कि वे राजस्थान वासियों के प्रेम को भूल नहीं सकतीं और आजन्म राजस्थान की ही सेवा करना चाहती हैं। वे अपने दर्द का बखान इस रूप में भी करती थीं कि उनकी मां विजयाराजे ने भाजपा को सींच कर बड़ा किया है, उसी पार्टी में उन्हें बेगाना कैसे किया जा रहा है। उनका इशारा साफ तौर पर उन दिनों की ओर था, जब भाजपा काफी कमजोर थी और विजयराजे ही पार्टी की सबसे बड़ी फाइनेंसर थीं। अटल बिहारी वाजपेयी लाल कृष्ण आडवाणी से कंधे से कंधा मिला कर उन्होंने पार्टी को खड़ा किया था।
बहरहाल, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी ने जिस तरह संगठन के विस्तार में वसुंधरा लॉबी को दरकिनार किया है, उससे साफ संकेत मिलता है कि हाईकमान वसुंधरा विरोधियों को भी पूरी तवज्जो देना चाहता है, ताकि वह आगे चल कर वसुंधरा के हाथों पूरी तरह से ब्लैकमेल होता रहे। हाईकमान समझता है कि जो महिला विधायकों की ताकत के दम पर उसको लोकतंत्र बहुमत का उपदेश दे कर बगावत के स्तर पर टकराव मोल ले सकती है, आगामी विधानसभा चुनाव में टिकटों के बंटवारे के वक्त भी भिड़ सकती है। ऐसे में हाईकमान के ही इशारे पर प्रदेश अध्यक्ष चतुर्वेदी ने अपने पत्ते खोले हैं। संगठन में किस तरह वसुंधरा विरोधियों को चुन-चुन कर स्थान दिया गया है, इसका एक उदाहरण ही काफी है कि गुर्जर आंदोलन के दौरान वसुंधरा के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले प्रहलाद गुंजल को प्रदेश उपाध्यक्ष बनाया गया है। समझा जाता है कि ऐसा इसलिए भी किया गया है कि ताकि आगामी विधानसभा चुनाव के वक्त दोनों गुटों के नेगोसिएशन की नौबत आए और दोनो पर ही दबाव रहे कि वे नेगोसिएशन के बाद बनाए गए प्रत्याशियों के लिए एकजुट हो कर काम करें। हाईकमान पिछले अनुभव से भी सबक सीख रहा है कि वसुध्ंारा को फ्री हैंड देने संघ को अपेक्षित सीटें नहीं देने के कारण टकराव हुआ और भाजपा सत्ता में आने से वंचित रह गई। हाईकमान यह भी अच्छी तरह से समझता है कि वसुंधरा के चक्कर में संघ को कमतर आंका गया तो वह पार्टी की जमीन ही खिसका सकता है। कुल मिला कर संगठन में हुए विस्तार से यह साबित हो गया है कि विधायकों की ताकत के कारण भले ही वसुंधरा पावर में हैं, मगर संगठन में अब भी संघ की ही चल रही है। ऐसे में केवल वसुंधरा के सहारे ही टिकट हासिल करने की सोच रखने वालों की आशाओं पर पानी फिर गया है। उन्हें संगठन के नेताओं के आगे भी नतमस्तक होना पड़ेगा।