गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

निपटाने की चेतावनी पर हुए गहलोत सख्त


गुर्जरों के ही एक नेता व राज्य के ऊर्जा मंत्री डॉ. जितेन्द्र सिंह को रेल पटरी पर भेजने के बाद भी सुलह नहीं हुई तो आखिर सरकार ने मंत्रीमंडल की बैठक बुला कर यह स्पष्ट कर दिया है कि अब वह कौन सी पटरी पर चलेगी। सरकार ने अपनी सीमा में जो कुछ हो सकता था, वह करने की सहमति तो दी ही, साथ ही एक सीमा के बाद अराजकता बर्दाश्त न करने की मंशा भी विज्ञापनों के जरिए जाहिर दी है। सरकारी विज्ञापन की भाषा से स्पष्ट है कि सरकार अब सख्त हो सकती है। अपील में कहा गया है कि प्रदेश में कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए राज्य सरकार प्रतिबद्ध है। सरकार को मजबूरन वे सारे कदम उठाने पड़ेंगे, जिससे आम आदमी को असुविधा न हो। अर्थ बिलकुल स्पष्ट है।
असल में सरकार को यह रुख इस कारण इस्तेमाल करना पड़ा क्यों कि आम जनता के साथ उस पर अब केन्द्र का भी दबाव आ रहा है। आंदोलन की आग दिल्ली की सत्ता तक पहुंचने पर उसने इशारा कर दिया है कि बहुत हो गया, इससे ज्यादा बर्दाश्त नहीं किया जा सकता, जो कुछ लेना-देना है, अब जल्द समाधान निकालो। एक अर्थ में इसे यूं कहा जा सकता है कि गहलोत को कह दिया गया है कि अगर आप आंदोलन से नहीं निपटते तो हम आपको निपटा देंगे। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का राज्यपाल शिवराज पाटिल के पास जा कर सफाई देने को इससे जोड़ कर देखा जा सकता है। ये तो गनीमत है कि पाटिल भी कांग्रेस पृष्ठभूमि के हैं, वरना वस्तुत: हालात ऐसे हो गए हैं कि अगर इसी जगह भाजपा या किसी और दल की सरकार होती तो राज्यपाल रिपोर्ट भेज देते कि राज्य की कानून-व्यवस्था बनाए रखना सरकार के बस में नहीं रहा है।
रहा सवाल विरोधी दल भाजपा का तो वह मूक दर्शक बन कर तमाशा देख रहा है। अमूमन ऐसा तमाशा सिर्फ वही देख सकता है, जिसके तार कहीं न कहीं आंदोलन से जुड़े हों। भाजपा को इस बात से तो मिर्ची लग रही है कि षड्यंत्र में उसका नाम न लिया जाए, मगर इस बात से कोई सरोकार नहीं कि सरकार और गुर्जरों की चक्की में आम आदमी पिस रहा है। राजस्थान के प्रति विशेष प्यार रखने वाली पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को भी इस बात तो पूरा ध्यान है कि कैसे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का नीचा दिखाया जाए, मगर इस बात से कोई मतलब नहीं कि जनता को तकलीफ से निकालने के लिए कुछ करें। एक बार भी उन्हें खयाल नहीं आया कि विरोधी दल के नाते राज्यपाल या राष्ट्रपति से दखल करने का आग्रह करें। कदाचित ऐसा इस वजह से हो कि इसकी जिम्मेदारी प्रदेश अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी की है। वे विरोधी दल की नेता होतीं तो विचार कर सकती थीं। वे इंकार तो कर रही हैं कि उनका आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं है, मगर उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि यदि कर्नल बैंसला गैर राजनीतिक आंदोलन चला रहे हैं तो किस वजह से उनकी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़े थे? बैंसला को पार्टी में कौन ले कर आया था?
आंदोलन के नेता कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला भी आम आदमी की तकलीफ को समझ रहे हैं, लेकिन साथ ही यह भी कह रहे हैं कि उनकी तकलीफ को भी तो समझा जाए। बार-बार आश्वासन देने के बाद भी कुछ नहीं देने पर सरकार पर कैसे भरोसा कर लिया जाए। भला बार-बार तो पटरी पर बैठा नहीं जा सकता, लिहाजा यह आखिरी संघर्ष है। साफ है कि वे अब पक्का आश्वासन चाहते हैं। कुल मिला कर विवाद ऐसे मुकाम पर आ गया है, जहां हालात के मद्देनजर समझौता किए बिना समाधान निकलना नहीं है। और इसके लिए वे ताकतें सक्रिय हो गई हैं, जो दोनों के बीच सेतु का काम करेंगी और साथ ही सरकार की ओर से गुर्जरों को गारंटी देंगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्द ही मामला आर-पार हो जाएगा।

बुधवार, 29 दिसंबर 2010

आम आदमी को भडक़ाया डॉ. जितेन्द्र सिंह ने?

गुर्जर नेता कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला की रेल पटरी पर ही वार्ता करने की जिद और सरकार की भी टेबल पर ही सुलह करने ठसक के बीच आखिर रेल पटरी पर ही पहुंचे ऊर्जा मंत्री डॉ. जितेन्द्र सिंह का पत्ता खारिज होने के बाद भी सरकार ने उनकी ओर से गुर्जरों को अपील जारी करवाई है। आम आदमी की परेशानी को बयां करते हुए गुर्जरों से आंदोलन का रास्ता छोडऩे वाली यह अपील यूं तो काफी सधी हुई है, मगर अपील में बड़ी ही विनम्र भाषा में यह आग्रह चौंकाने वाला है कि गुर्जर आंदोलनकारी आम आदमी के सब्र की परीक्षा न लें। सिंह का यह बयान साफ तौर पर इशारा कर रहा है कि आंदोलन की त्रासदी लंबी चली तो इसकी प्रतिक्रिया भी हो सकती है। अर्थात उन्होंने यह संकेत दे दिया है कि आम आदमी एक सीमा तक ही ठप्प हुई जिंदगी को बर्दाश्त करेगा। यद्यपि उनकी बात सच का आइना दिखाने वाली है, मगर ऐसा करके उन्होंने सरकार की ओर से गुर्जरों को डराया है या आम आदमी को भडक़ाया, कुछ समझ में नहीं आता। आम आदमी खुद-ब-खुद भडक़े यह तो समझ में आता है, मगर एक जिम्मेदार मंत्री यह भाषा इस्तेमाल करे तो स्थिति सोचनीय हो जाती है।
वैसे हकीकत ये है कि आंदोलन के कारण चौपट हुई व्यवस्था का भान कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला को भी है। सोमवार को पत्रकारों से बात करते हुए उन्होंने इसका इजहार भी किया। साथ ही अपनी मजबूरी भी जता दी। सवाल-जवाब में स्थिति यहां तक आ गई कि खुद बैंसला को उलटे पत्रकारों से सवाल करना पड़ा कि आप ही बताइये अब मैं क्या करूं। एक अर्थ में यह सच ही है कि आंदोलन आज जिस मुकाम पर है, उसमें बैंसला खुद असमंजस की स्थिति में हैं। एक ओर समाज का पूरा दबाव है तो दूसरी ओर हाईकोर्ट के निर्णय के कारण सरकार की मजबूरी। इसके बीच का हल निकलना वाकई कठिन ही है। वार्ता चाहे पटरी हो या टेबल पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हां, इससे बैंसला की मूंछ जरूर ऊंची हुई कि उन्होंने सरकार को पटरी पर लाने को मजबूर कर दिया, मगर जब सुलह का कोई रास्ता ही नहीं है तो ऐसी वार्ता का हल भी क्या निकलना था। एक मात्र रास्ता ये है कि सरकार तब तक भर्तियां रोक दे, जब तक कि गुर्जरों का आरक्षण सुनिश्चित नहीं हो जाता, मगर देखना ये है कि सरकार ऐसा करके आम आदमी की नाराजगी मोल लेने का दुस्साहस दिखाती है या नहीं।

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

क्या मायने हैं कमजोर होते गहलोत पर वसु मैडम के हमले के?

जोशी और पायलट का बढ़ा सरकार में दखल
गुर्जर आंदोलन की आग की वजह संकट में घिरी अशोक गहलोत सरकार में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष व केन्द्रीय मंत्री डॉ. सी.पी. जोशी और केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट का दखल बढ़ता दिखाई दे रहा है। ऊर्जा मंत्री डॉ. जितेन्द्र सिंह के रेल पटरी पर बैठे कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला के पास जा कर वार्ता करने के बाद भी जब बात पटरी पर नहीं आई तो कांग्रेस हाईकमान भी चिंतित हो उठा। वह इस कारण भी चिंतित है क्यों कि इससे न केवल राजस्थान में अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई है, अपितु आंदोलन की आग दिल्ली तक भी पहुंचने लगी है। दिल्ली के आस-पास के गुर्जर भी उग्र होने लगे हैं। आंदोलन भले ही राजस्थान का हो, मगर चौपट तो केन्द्र के अधीन चलने वाली रेल व्यवस्था हो रही है। ऐसे में संकट का हल निकालने के लिए आखिरकार कांग्रेस हाईकमान के इशारे पर डॉ. जोशी व पायलट को भी मंत्रणा के लिए जयपुर बुलाना पड़ गया। जोशी को इसलिए कि वे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी हैं और पायलट को इसलिए कि उनमें आम गुर्जर स्व. राजेश पायलट का चेहरा देखते हैं। गुर्जर आंदोलन से निपटने में विफल होती जा रही गहलोत सरकार में इसे सीधे-सीधे जोशी व पायलट के बढ़ते दखल के रूप में देखा जा रहा है।
कांग्रेस हाईकमान की नजर में जोशी व पायलट की कितनी अहमियत है, इसका खुलासा दिल्ली के पास बुराड़ी गांव में पिछले दिनों आयोजित कांगे्रस में राष्ट्रीय अधिवेशन में ही नजर आ गया था। राहुल के गुणगान े साथ संपन्न इस अधिवेशन में डॉ. जोशी के हाथों आर्थिक प्रस्ताव रखवाए जाने और राहुल बिग्रेड के पायलट को भी मंच से उद्बोधन देने का मौका दिए जाने से यह साफ हो गया था गहलोत की तुलना में उन्हें ज्यादा तवज्जो दी जा रही है। गहलोत भले ही पुश्तैनी जादूगर होने के कारण सोनिया पर जादू चलाए हुए हैं, मगर राहुल पर तो अपनी विद्वता जादू जोशी ने ही चला रखा है। पायलट के बारे में बताने की जरूरत नहीं है कि वे राहुल के करीबी दोस्त हैं। इस अधिवेशन में गहलोत के समीकरण कितने कमजोर हुए, इसका खुलासा तो हालांकि नहीं हो पाया, लेकिन वे कितने आहत हुए इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गहलोत के बयानों से आहत पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा तक पिछले तीन-चार दिन से इसका उल्लेख विशेष रूप से करके हमलावर मुद्रा में आई हुई हैं। किनारे पर आ कर प्यासी रह गई महारानी के मन में उनकी कुर्सी पर बैठ कर इठलाने वाले गहलोत का स्मरण आते ही सीने पर सांप लौटने लगते होंगे, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। वे भले ही कांग्रेस सरकार को हटा पाने में सक्षम नहीं है, लेकिन कमजोर होते गहलोत की जड़ों में छाछ तो डाल ही सकती हैं। जैसे ही गहलोत ने आंदोलन को भडक़ाने में वसुंधरा का हाथ होने का बयान जारी किया तो वसु मैडम भडक़ उठीं। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि नाकामियों की वजह से गहलोत प्रधानमंत्री की फटकार खा चुके हैं और इसी कारण आरक्षण विधेयक को नौवीं अनुसूची में शामिल कराने के लिए प्रधानमंत्री से मिलने से कतरा रहे हैं। उन्होंने यह न्यौता तक दे दिया कि वे चाहें तो उन्हें प्रधानमंत्री से मिलवाने में अपनी भूमिका अदा करने को तैयार हैं। कुटनीति में माहिर वसु मैम ने कांग्रेस में आग भडक़ाने के लिए इस बयान का भी सहारा लिया कि उनकी सरकार के दौरान कांग्रेस के समर्थन से पारित आरक्षण विधेयक की सी. पी. जोशी, बी. डी. कल्ला व जगन्नाथ पहाडिय़ा ने विधेयक की तारीफ की थी, क्या गहलोत इन तीनों को कांग्रेस हाईकमान के सामने नीचा दिखाना चाहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वसु मैम को कांग्रेस की अंदरूनी कमजोरी अच्छी तरह पता लग गई है और संकट में घिरे गहलोत को झटका देने के मौके को नहीं छोडऩा चाहतीं।
बहरहाल, गुर्जर आंदोलन के गतिरोध को तोडऩे की कवायद में डॉ. सिंह के साथ ही पायलट को जोडऩे के संकेतों से यह साफ हो गया है कि यह सब सोची-समझी राजनीति का नतीजा है। ऐसा करके राहुल ने कुछ दिन के मंथन के बाद सीधे खुद ही हाथ डाल दिया है। इस प्रकार हाथ डालने की स्टाइल से यकायक इंदिरा गांधी की याद ताजा हो जाती है, जो समय-समय पर मुख्यमंत्रियों की जड़ें उखाड़ कर देखती रहती थीं कि कहीं वे जमने तो नहीं लगी हैं। हालांकि निश्चित रूप से यह दूर की कौड़ी है कि अशोक गहलोत को हटा कर जोशी को मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है, मगर जोशी व पायलट का बढ़ता दखल इतना तो इशारा कर ही रहा है कि प्रदेश में कोई नया तानाबाना बुना जा रहा है।

शनिवार, 25 दिसंबर 2010

नेता बनाम अधिकारी, किसकी ज्यादा जिम्मेदारी?

अपुन के दिमाग में आया कि सत्ता की गाड़ी को दो ही पहिये चलाते हैं, राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी। दोनों में से एक के बिना भी सरकार नहीं चल सकती। मगर सवाल ये उठता है कि इनमें से बड़ा कौन? दोनों में कौन ज्यादा जिम्मेदार है?
एक अधिकारी से गुफ्तगू की तो वे बोले असल में सरकार तो अधिकारी और उसके नीचे का तंत्र चलाता है। राजनेता को तो कानून और नियमों की जानकारी तक नहीं होती। वह तो केवल मौखिक आदेश देता है, उनकी अनुपालना नियमों के अंतर्गत किसी प्रकार की जाए, यह रास्ता तो अधिकारी ही निकालता है। वैसे भी यदि नियम के खिलाफ कुछ हो जाए तो राजनेता का कुछ नहीं बिगड़ता, क्यों कि वह तो केवल जुबानी जमा-खर्च करता है, जबकि रिकार्ड के मुताबिक फंदा को अधिकारी और कर्मचारी के गले में ही पड़ता है। अगर प्रशासनिक तंत्र प्रभावी न हो तो राजनेता जो मन में आए, वही करे और इसके नतीजे में अराजकता ही हाथ आ सकती है। कुल मिला कर अधिकारी नकेल का काम करता है और उसी की वजह से सिस्टम चलता है। इस लिहाज से अधिकारी ही बड़ा और जिम्मेदार माना जाना चाहिए, मगर बावजूद इसके उसे दब कर चलना पड़ता है। इस वजह से, क्यों कि राजनेता चाहे जब उसे उठा कर दूर फिंकवा सकता है।
अपुन ने एक राजनेता का मन टटोला। उनका तर्क भी दमदार था। बोले- राजनेता ही बड़ा होता है। असल में सरकार बनी ही जनता के लिए है और जनता का दर्द राजनेता से ज्यादा कौन समझ सकता है। वह जनता में से उठ कर आता है, जनता के बीच ही रहता है और जनता के प्रति ही जवाबदेह होता है। आप ही सोचिये, हो भले ही रेलवे ट्रेक के कर्मचारी की वजह से ट्रेन एक्सीडेंट, मगर छुट्टी तो रेल मंत्री हो जाती है। इतना ही नहीं नेेता को हर पांच साल बाद जनता के सामने परीक्षा देने जाना पड़ता है। विपक्षी तो कपड़े फाड़ता ही है, खुद की पार्टी का भी टांग खींचने में लगा रहता है। जनता भी ऐसी है कि कब और किस वजह से फेल कर दे और कब पास, कुछ पता नहीं होता। दूसरी ओर अधिकारी केवल किताबों को रट कर या फिर टीप-टाप कर एक बार परीक्षा पास कर लेता है और ले-दे कर ऊंचे ओहदे पर पहुंच जाता है। फिर ताजिंदगी ए.सी. चेंबर में ऐश करता है। न तो जनता के पास जाने का झंझंट और न ही जनता से मिलने-मिलाने की परेशानी। दरबान ही नहीं घुसने देता। जनता उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती है। हद से हद उसका तबादला कर दो। जहां जाएगा, गाड़ी, बंगला, चपरासी, सब कुछ मिलेगा। अब आप ही बताइये, जिसका ज्यादा समर्पण और ज्यादा जवाबदेही है, वही तो ज्यादा जिम्मेदार हुआ।
दोनों की बातें सुन कर अपना तो सिर ही चकरा गया। कौन बड़ा और कौन ज्यादा जिम्मेदार? अपने लिए तो दोनों ही बड़े हैं। हां, अगर दोनों में से कोई भी गलती करे तो अपनी कलम के वार से बच नहीं सकते। और आप जानते हैं कि तलवार के वार से ज्यादा गहरा घाव करता है शब्द बाण। अरे..... आप कहीं ये तो नहीं समझ रहे कि अपुन अपने आप को बड़ा साबित करने लगे हैं। अपुन कितने छोटे हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गर किसी नेता से अटके तो कुट जाएंगे और अधिकारी के जंच गई तो वह हमारी रिपोर्ट दर्ज नहीं होने देगा।

अजीबोगरीब उलझन में फंस गया गुर्जर आंदोलन

कांग्रेसी गुर्जरों के लिए है इधर कुआं उधर खाई
राजस्थान हाईकोर्ट के फैसले के बाद गुर्जर आरक्षण आंदोलन अजीबोगरीब उलझन में फंस गया है। गुत्थी कानूनी तो है ही, राजनीतिक दखल भी बुरी तरह घुस जाने के कारण आंदोलन दो राहे पर खड़ा है।
अजमेर का ही उदाहरण ही लें। एक ओर जहां पूरा प्रदेश गुर्जर आंदोलन से गरमाया हुआ है, वहीं अजमेर में यह उतना जोर नहीं पकड़ पा रहा, जितना कि यहां गुर्जरों की बहुलता के मद्देनजर होना चाहिए था। खालिस समाज की राजनीति करने वाले और भाजपा से जुड़े गुर्जर नेताओं को तो कोई परेशानी नहीं है, लेकिन अधिसंख्य कांग्रेसी गुर्जर नेताओं के लिए इधर कुआं उधर खाई वाली स्थिति बनी हुई है। दो विकल्पों के बीच पैंडुलम की तरह झूलते इन नेताओं को डर है कि सरकार के खिलाफ चलाए जा रहे आंदोलन में शिरकत करते हैं तो पार्टी में कैरियर प्रभावित हो जाएगा। आगे मिलने वाले किसी राजनीतिक पद से वंचित रह जाएंगे। और कैरियर ही नहीं रहा तो क्या खा कर समाज की राजनीति करेंगे। समाज भी तो आखिर पावरफुल का साथ देता है। दूसरी ओर अगर सरकार का साथ देते हुए चुप बैठे रहते हैं तो समाज में जनाधार खत्म हो जाएगा। जिस समाज के दम पर नेतागिरी कर रहे हैं, वही कह देगा जब समाज के लिए मरने-मारने की स्थिति है, तब भी अगर समाज का साथ नहीं देंगे तो फिर क्यों समाज उनके साथ रहे।
कांग्रेसियों को आंदोलन में खुल कर सामने आने में एक दिक्कत ये भी है कि अजमेर में आंदोलन की अगुवाई कर रहे ओम प्रकाश भड़ाणा ने भले ही किसी राजनीतिक दल के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर नहीं की है, मगर उनके आका कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला तो समाज की नेतागिरी करते-करते राजनीति की चौसर में फंस चुके हैं। ऐसे में हों भले ही कांग्रेसी समाज की मांग के साथ, मगर बैंसला के इशारे पर हो रहे आंदोलन में, जिसकी सफलता का श्रेय बैंसला के खाते में जाना हो, उसमें कैसे शामिल हो जाएं। भडाणा ने तो साफ ही कह रखा है कि किसी की भले ही किसी भी पार्टी विशेष से प्रतिबद्धता हो, मगर यह आंदोलन तो बैंसला की अगुवाई में ही चलाया जा रहा है। कांग्रसियों को दूसरा डर अजमेर में अपने आका केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट का है कि कहीं वे नाराज न हो जाएं। ज्ञातव्य है कि पायलट ने तो हाल ही सरकार के समर्थक गुर्जर नेताओं के साथ मिल कर एक विज्ञापन जारी किया था, जिसमें आंदोलन का समाप्त कर वार्ता के जरिए समाधान की अपील की थी। ऐसे में भला उनके अनुयायी कैसे खुल कर सामने आ सकते हैं। उनके आंदोलन में शिकरत करने से दिल्ली में सचिन के नंबर कम होते हैं कि आखिर उनकी जिले पर पकड़ कितनी है। कुल मिला कर अपनी-अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं की वजह से अजमेर में आंदोलन उतना दमदार नहीं हो पाया, जितना होना चाहिए था।
असल में कोई भी समाज तभी कामयाब हो पाता है, जबकि उनका नेता केवल समाज के प्रति ही जवाबदेह हो। किसी पार्टी से उसका कोई लेना-देना न हो। आपको याद होगा जाट समाज का आरक्षण आंदोलन, जो पूरी तरह गैर राजनीतिक शख्सियत ज्ञान प्रकाश पिलानिया के नेतृत्व में हुआ और दोनों ही दलों के नेताओं के समर्थन से उन्हें कामयाबी हासिल हो गई। उनकी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं थी, मगर दोनों दलों के नेताओं ने उनका नेतृत्व स्वीकार किया था। मगर उस आंदोलन और गुर्जर आंदोलन में फर्क है। जाटों को इतनी शहादत नहीं देनी पड़ी थी। पहली बार अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल करने की मांग इतने बड़े पैमाने पर की गई थी और कोर्ट का कोई चक्कर नहीं था, इस कारण थोड़ी-बहुत जद्दोजहद के बाद मांग पूरी हो गई। आंदोलन समाप्त होने के बाद जरूर पिलानिया ने भाजपा का पल्लू थाम लिया था, मगर इससे पहले तो वे निष्पक्ष बने रहे थे। बैंसला के साथ ऐसा नहीं है। वे सफलता के शिखर पर पहुंचने से पहले ही फिसल गए और यही वजह रही कि समाज के लिए सर्वाधिक संघर्ष कर खून पसीना बहाने के बाद भी विरोधी राजनीतिक कार्यकर्ताओं का विश्वास खो बैठे। ऐसा कदाचित इस कारण भी हुआ होगा कि पिलानिया ने नेताओं के बीच ही सरकारी नौकरी की, इस कारण राजनीति की बारीकियां समझते थे, जब कि बैंसला सेना में रहने के कारण केवल लाठी-गोली की भाषा ही समझते थे, जिसके दम पर आंदोलन इतनी दूर तक पहुंचने में कामयाब हुआ, मगर सियासी समझ कम होने के कारण वसुंधरा के चक्कर में आ गए। बाद में तो यहां तक कहा जाने लगा कि बैंसला के तार पहले से वसुंधरा राजे से जुड़े हुए थे।
बहरहाल, अकेले राजनीतिक चक्कर में ही नहीं, बल्कि गुर्जर आंदोलन तो कानूनी पेचीदगी में भी उलझ गया है। सरकार भले ही आरक्षण देने को तैयार हो, तैयार क्या हो, उसने तो दे ही दिया था, मगर हाईकोर्ट की बाधा सामने आ गई है। उसकी आड़ में तो सरकार भी यह कहने की स्थिति में है कि वह तो आरक्षण देना चाहती है, मगर कोर्ट के आदेश के आगे तो वह बेबस ही है। अब एक ही चारा है, या तो सरकार एक लाख भर्तियां रोके, या फिर ट्रैक पर आ चुके गुर्जरों से टकराए। गुर्जर नेता भी मजबूर हैं। सरकार की मजबूरी को ध्यान में रख कर समझौता करते हैं तो समाज की नाराजगी भारी पड़ सकती है।

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

जोशी का बढ़ा कद, नए समीकरणों के संकेत


दिल्ली के पास बुराड़ी गांव में आयोजित कांगे्रस में राष्ट्रीय अधिवेशन में दूसरे दिन केन्द्रीय मंत्री व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सी. पी. जोशी के हाथों आर्थिक प्रस्ताव रखवाए जाने से जयपुर में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खेमे में खलबली मची हुई है। जोशी को इतनी तवज्जो मिलने से स्वाभाविक तौर पर गहलोत लॉबी चिंतित होगी ही। जोशी के दखल की वजह से अब तक नया प्रदेश अध्यक्ष तय न हो पाने व राजनीतिक नियुक्तियां अटकने से गहलोत लॉबी पहले से ही परेशान है। गहलोत चाह कर भी अपने लोगों को लाभ नहीं दे पा रहे। केन्द्र में मंत्री बनाए जाने के बाद भी जोशी की टांग यहां फंसी हुई है। अगर राजनीतिक नियुक्तियों की कवायद की जाती है तो जोशी लॉबी को बड़ी संख्या में पद देने होंगे। इस कारण गहलोत अनुकूल समय का इंतजार कर रहे हैं। सुना यह भी है कि इसी अधिवेशन के दौरान हाईकमान ने उन्हें नियुक्तियों की हरी झंडी दे चुका है और बजट सत्र से पहले ही यह काम निपटाए जाने की संभावना बताई जा रही है। लेकिन जैसे ही मंच से आर्थिक प्रस्ताव पेश करने का जोशी को मौका मिला, गहलोत लॉबी में यह चिंता व्याप्त हो गई है कि गहलोत को नियुक्तियों में फ्री हैंड नहीं मिल पाएगा और जोशी भी अपना हिस्सा हासिल करेंगे।
हालांकि यह दूर की कौड़ी है कि अशोक गहलोत को हटा कर जोशी को मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है, मगर सियासी हलकों में इसकी हल्की सुगबुगाहट तो है ही। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि गहलोत इतने कमजोर हो गए हैं और उन्हें हटाए जाने की नौबत आ चुकी है, लेकिन कांग्रेस की जैसी कल्चर में उसमें कब क्या हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। शिवचरण माथुर, जगन्नाथ पहाडिय़ा इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। विधायकों में उनका इतना वर्चस्व नहीं था कि उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जाता, मगर हाईकमान ने उन पर हाथ रख दिया था। खुद गहलोत भी जब मुख्यमंत्री बने थे तो हाईकमान की कृपा से ही बने थे। ऐसे में जोशी कब काबिज हो जाएं, कुछ कह नहीं सकते।
सचिन पायलट का भी नजर आया वर्चस्व
अधिवेशन में राहुल ब्रिगेड की किचन केबिनेट के सदस्य, अजमेर के सांसद व केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट को बोलने का मौका दिए जाने के भी विशेष अर्थ निकाले जा रहे हैं। हालांकि अभी तो नहीं लगता कि सचिन को यकायक राजस्थान का दायित्व दिया जाएगा, मगर जिस तरह राहुल मजबूत होते जा रहे हैं, सचिन को भावी मुख्यमंत्री के रूप में देखा ही जा सकता है। कल जब राहुल प्रधानमंत्री की कुर्सी के और करीब होंगे, सचिन और पावरफुल हो जाएंगे। सचिन ने जिस तरह सांप्रदायिकता के खिलाफ कंधे से कंधा मिला कर चलने की प्रतिबद्धता जाहिर की, उससे यह साफ है कि वे राहुल के कितने करीब हैं। बहरहाल, सचिन का इस तरह वर्चस्व बढऩा अजमेर वासियों के लिए तो गौरव की बात है।

विवाद में फंस गए पंचायतीराज मंत्री भरतसिंह

संभाग मुख्यालयों पर जिला परिषदों में आईएएस अधिकारियों की तैनाती व ग्राम पंचायतों में निविदा प्रक्रिया पर मुंह खोल कर प्रदेश के पंचायतीराज मंत्री भरतसिंह विवाद में फंस गए हैं। जिला सरपंच संघ ने न केवल उनके बयान का विरोध किया है, अपितु मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के फैसलों पर अगूंली न उठाने का आग्रह करते हुए एक अर्थ में सीधे गहलोत से ही भिड़ा दिया है। बड़े मजे की बात ये है कि भरत सिंह पर निशाना साधने वाले सरपंच संघ के अध्यक्ष भूपेन्द्र सिंह राठौड़ खुद कांग्रेस मानसिकता के हैं। उनके इस बयान को इस अर्थ में भी महत्वपूर्ण माना जा सकता है कि वे प्रदेश के बड़बोले कांग्रेस नेता केकड़ी के विधायक डॉ. रघु शर्मा के भी खासमखास हैं।
दरअसल भरतसिंह ने एक दिन पूर्व ही जो बयान दिया था, वह चंद दिन पहले अजमेर आ कर निर्देश दे गए शिक्षा मंत्री मास्टर भंवरलाल मेघवाल के सर्वथा विपरीत पड़ रहा था। जनप्रतिनिधियों और सीईओ के बीच अधिकारों को लेकर बनी मंत्रीमंडलीय समिति ने अपनी रिपोर्ट अभी दी ही नहीं है कि मेघवाल ने सीईओ को जनप्रतिनिधियों के दबाव में न आ कर काम करने की हिदायत दे कर ब्यूरोक्रेसी को थपथपी दे दी थी, जबकि भरत सिंह जनप्रतिनिधियों को सर्वाधिक अधिकार संपन्न बता कर सीईओ को हप्प कर गए। दो मंत्रियों के इस प्रकार विरोधाभासी बयान से विवाद तो होना ही था। बस पहल भर का जिम्मा राठौड़ ने ले लिया। इतना ही नहीं उन्होंने भरत सिंह को यह कह कर आइना दिखाने की कोशिश भी की है कि शायद उन्हें मुख्यमंत्री का फैसला रास नहीं आ रहा है। भरत सिंह पर आरोप लगाते हुए उन्होंने कहा है कि उनके निविदाओं संबंधी बयान से गांवों में पक्के निर्माण कार्य बंद हो जाएंगे। सीईओ पद पर आईएएस अधिकारी को लगाने का स्वागत करते हुए उन्होंने कहा है कि इससे विकास के कार्यों में गति आई है। हालांकि अजमेर में जिला प्रमुख पद पर काबिज भाजपा नेता श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा के साथ सीईओ शिल्पा के टकराव मोल लिए जाने के मद्देनजर कांग्रेस मानसिकता के राठौड़ का सीईओ की तरफदारी करना स्वाभाविक सा है, मगर ऐसा करके उन्होंने मंत्री महोदय को भी खूंटी पर टांग दिया है। इससे यह भी उजागर हो गया है कि राठौड़ सीईओ की आड़ में जिला प्रमुख पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं। भरत सिंह के सीईओ शिल्पा को अपनी सीमा में रहने की अपरोक्ष धमकी के मद्देनजर राठौड़ की यह तरफदारी शिल्पा को कुछ राहत देने वाली हो सकती है, मगर इससे यह तो साफ हो ही गया है कि शिल्पा भी विवादग्रस्त होती जा रही हैं। कदाचित यह भी हो सकता है कि राठौड़ ने शिल्पा के कहने अथवा अपने आका रधु शर्मा के इशारे पर ही भरतसिंह पर हमला बोला हो।
बहरहाल, इस केवल जिला प्रमुख व सीईओ तक हुए टकराव के दो मंत्रियों तक में तब्दील होने के बाद के कारण सुरसा के मुंह की तरह लगातार बढ़ते जा रहे इस विवाद का अंत क्या होगा, यह अब दिलचस्प हो गया है। ऐसा लगता है कि पंचायतों को अधिकार संपन्न बनाने की दावा करने वाली सरकार खुद ही इस मुद्दे पर विवाद को बढ़ावा दे रही है, वरना क्या वजह है कि एक ही सरकार के मंत्री आपस में टकरा रहे हैं।

बुधवार, 22 दिसंबर 2010

असली मुद्दों से भटका रहे हैं दिग्विजय सिंह

एक ओर जहां पूरा देश अनगिनत घोटालों की खुलती परतों से अचंभित और चिंतित है, ऐसे में मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री व कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह आम सोच का ध्यान भटकाने के लिए लगातार संघ और भाजपा पर हमले किए जा रहे हैं। और दिलचस्प मगर अफसोसनाक बात ये है कि शुरू से अति प्रतिक्रियावादी संघ और भाजपा भी उनकी छेडख़ानी से उत्तेजित हो कर पलट वार करते हुए सिंह के मकसद को कामयाब कर रहे हैं। इस हल्ला बोल प्रतिस्पद्र्धा का ढंका हुआ सच ये है कि सिंह तो केवल संगठन को ही निशाने पर लेते हैं, जबकि संघ व भाजपा भडक़ कर सीधे सोनिया व राहुल पर व्यक्तिगत घटिया टिप्पणियां उछालते हैं, जिसका परिणाम ये होना है कि सोनिया व राहुल को बोनस में सहानुभूति मिल जाने वाली है।
अहम सवाल ये है कि बड़बोले बयानों से सदैव सुर्खियों में रहने वाले दिग्विजय सिंह का यह कहना कि हेमंत करकरे ने मुंबई हमले से कुछ घंटे पहले उन्हें फोन कर कहा था कि उन्हें हिंदू आतंकवादियों से खतरा है, क्या सोची समझी राजनीतिक रणनीति का हिस्सा नहीं है? उन्होंने यह बयान तब दिया, जब कि लगातार उघड़ते जा रहे घोटालों के कारण कांग्रेस सरकार बुरी तरह से घिरी हुई है। केवल भ्रष्टाचार के कारण ही संसद का पूरा शीतकालीन सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया। हालत ये हो गई कि कांग्रेस और भ्रष्टाचार एक दूसरे पर्याय नजर आने लगे हैं। हालांकि भ्रष्टाचार से सड़ चुके पूरे तंत्र की टीस आमजन में अंदर तक पैठ गई है, मगर कहीं इस मुद्दे भाजपा जनता में उबाल लाने में कामयाब न हो जाए, दिग्विजय सिंह ने सियासी माहौल की दिशा को बदलने का बीड़ा सा उठा लिया है। दिग्विजय ने जैसे संघ पर निशाना साधते हुए कहा कि तत्कालीन एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे को हिंदुत्ववादी ताकतों से खतरा था, बवाल हो गया। ऐसे में बड़ी चतुराई से कांग्रेस ने इस बयान से अपने को दूर कर लिया। यूं दिग्विजय ने भी पलटी मारी, मगर यह कहने से तब भी नहीं चूके कि उन्होंने मुंबई हमले के पीछे हिंदू आतंकवादियों का हाथ होने की बात नहीं की। ऐसा करके उन्होंने बड़ी चालाकी से हिंदू आतंकवाद शब्द को स्थापित करने की पुरजोर कोशिश की। यह ठीक है कि उन्होंने देश की अंदरुनी राजनीति के तहत ऐसा बयान दिया, मगर इससे दुनिया में हमारे देश का यह तर्क तो कमजोर हुआ ही है कि मुंबई हमला पूरी तरह पाकिस्तान आधारित हमला था और इसे पाकिस्तान में प्रशिक्षित आतंकवादियों ने अंजाम दिया।
सिंह की बयानबाजी से 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में घोटाला, आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटाला तथा राष्ट्रमंडल खेल घोटाले से लोगों का ध्यान हटा या नहीं, मगर इसी बीच विकीलीक्स पर यह जानकारी उजागर हुई कि मुंबई हमले के बाद कुछ कांग्रेसी नेताओं ने धर्म की राजनीति शुरू कर दी थी, कांग्रेस खुद सांप्रदायिकता के आरोपों से घिर गई। इससे यह बात तो पुष्ट हुई ही है कि कांग्रेस अल्पसंख्यकों को साम्प्रदायिकता का भय दिखाकर चुनावी लाभ अर्जित करती रही है। जैसे भाजपा हिंदुत्व को भडक़ा कर सांप्रदायिक राजनीति करने का आरोप ढ़ो रही है, वैसे ही कांग्रेस पर भी प्रतिक्रियात्मक सांप्रदायिक राजनीति करने का कलंक जड़ गया है।
इस पूरी जुबानी जमाखर्ची के बीच यह सवाल तो उठता ही है कि दिग्विजय सिंह ने दो साल तक तथ्य को क्यों छिपाए रखा? क्या उन पर जांच एजेंसियों को जानकारी देने का दायित्व नहीं था? यह भी कि कोई एटीएस प्रमुख किसी राजनेता से इस प्रकार का अनुभव क्यों साझा करेगा, यानि कि ऐसी जांचें राजनीतिक पार्टियों से निर्देशित होती हैं? जिज्ञासा ये भी होती है कि दिग्विजय सिंह व करकरे के संबंध कैसे थे? हालांकि महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री अजित पवार ने तथ्यों की जांच का आश्वासन दिया, मगर वास्तविकता इसलिए सामने आने की उम्मीद नहीं है क्यों कि वहां कांग्रेस की ही सरकार है।
लब्बोलुआब, बयानबाजी के इस लंबे सिलसिले का मकसद साफ नजर आता है कि दिग्विजय सिंह को भ्रष्टाचार के आरोप से त्रस्त कांग्रेस सरकार पर लगातार बढ़ रहे दबाव से मुक्त कराने का जिम्मा दिया हुआ है। वरना क्या वजह है कि राहुल ने भी बाद में संघ की तुलना सिमी से की। यानि यह सब कुछ सोची समझी राजनीति का हिस्सा है। पहले सिंह से शब्द बाण चलवाए जाते हैं और फिर उसकी प्रतिक्रिया देख कर उसी के अनुरूप हाईकमान भी बोलने लग जाता है। रविवार को शुरू हुए कांग्रेस महाधिवेशन में भी सिंह ने संघ पर निशाना साधते हुए कहा कि वह हिटलर की नाजी सेना की तरह है। उन्होंने बड़ी मौलिक बात ये उठाई कि अब तक यह पूछा जाता था कि सारे मुसलमान आतंकी नहीं हैं तो हर पकड़ा गया आतंकी मुसलमान ही क्यों होता है, वैसे ही संघ यदि आतंकवादी संगठन नहीं है तो अब तक पकड़े गए सभी हिंदू आतंकी संघ से ही क्यों जुड़े हुए हैं। जाहिर तौर पर इससे संघ फिर भडक़ेगा और उसके पास निशाना साधने के लिए राहुल को बच्चा और सोनिया को विदेशी कहने के सिवाय कोई चारा नहीं रहेगा। इसका परिणाम भले ही अभी संघ को नहीं समझ में आए, मगर सोनिया व राहुल को ठीक उसी तरह से सहानुभूति मिल जाएगी, जिस तरह लगातार व्यक्तिगत आरोप झेलने वाली इंदिरा गांधी ने फिर सत्ता पर कब्जा कर लिया था।

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

गुर्जर आंदोलन : फिर बना सरकार के गले की हड्डी

राजनीतिक दलों की वोट राजनीति के परिणामस्वरूप एक बार फिर गुर्जर समाज का आंदोलन सरकार के गले की हड्डी बनने जा रहा है। एक ओर कोर्ट ने पचास प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण देने पर रोक लगा रखी, इस कारण गुर्जरों को अभी अपेक्षित आरक्षण दिया नहीं जा सकता, तो दूसरी ओर लाखों बेरोजगारों के दबाव में लंबे अरसे रुकी पड़ी भर्तियों को करना जरूरी है। हालांकि सरकार ने गुर्जरों को विशेष पिछड़ा वर्ग के तहत एक प्रतिशत आरक्षण दे रखा है और उन्हें ओबीसी के तहत 21 प्रतिशत लाभ भी मिल रहा है, मगर वे पांच प्रतिशत की मांग पर अड़े हुए हैं। यह एक ऐसी गुत्थी है, जिसका कोई समाधान नहीं है।
सरकार की हालत ये है कि वह कुछ भी नहीं कर सकती। यदि वह गुर्जरों के दबाव में एक लाख नौकरियों की भर्ती प्रक्रिया को रोकती है तो एक ओर बेरोजगारों में रोष भडक़ सकता है, दूसरी ओर जिन दफ्तरों में रिक्त पद हैं, वहां का कामकाज प्रभावित होता है, जिसका सीधा-सीधा नुकसान आम जनता को होगा। आखिर वह कब तक कोर्ट का फैसला आने तक भर्ती को रोक सकती है? रहा कोर्ट का मामला तो उसके हाथ में केवल फैसले का इंतजार करना ही है। हालांकि उसने अपनी ओर से गुर्जरों की पैरवी करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के एक वकील को भी लगाया है, मगर फैसला सरकार के पक्ष में ही आएगा, यह कैसे सुनिश्चित हो सकता है? रही कोर्ट की प्रक्रिया का मसला तो यह उसी पर ही निर्भर है कि वह किन औपचारिकताओं को कितने समय में निपटाता है। उसे बाध्य तो किया नहीं जा सकता है कि निश्चित समय वह फैसला सुनाए। यानि कि सरकार इस वक्त ऐसे दुष्चक्र में फंस गई है, जिससे निकलना बेहद मुश्किल है।
सरकार ही क्यों, आंदोलन अगर तेज होता है तो उसके दुष्चक्र का परिणाम तो आखिरकार आम जनता को ही भुगतना है। लोगों को याद है पिछले गुर्जर आंदोलन के दिन, जब इस प्रदेश में अराजकता का अध्याय लिख दिया गया था। कानून-व्यवस्था, सब कुछ ताक पर रख दिया गया, जिसका परिणाम ये हुआ कि न केवल गुर्जर समाज के अनेक युवक शहीद हुए, अपितु आम जनता ने भी अत्यधिक कष्ठ भोगे। एक बार फिर वह नौबत आ गई दिखती है। गुर्जर समाज अपनी मांग की खातिर अडिग है। उसे तो किसी भी सूरत में समाज के युवाओं के लिए आरक्षण चाहिए। इसके लिए एक गुट ने बांदीकुई इलाके के अरनियां में रेलवे स्टेशन पर महापड़ाव शुरू कर दिया है तो दूसरा गुट रसेरी गांव में सोमवार से ट्रेक जाम करने का ऐलान कर चुका है। जाहिर तौर पर दोनों गुट समाज के सामने अपनी मांग को पूरा करवाने की क्रेडिट लेना चाहते हैं। इसी वजह से दोनों में कड़ी प्रतिस्पद्र्धा है। यही प्रतिस्पद्र्धा सरकार के लिए संकट का कारण बनी हुई है। हालांकि अंग्रेजों की फूट करो और राज करो की नीति सरकार ने ही अपना कर समाज को दो धड़ों में बांट दिया है, मगर आज वह उसके सामने सुरसा के मुंह की तरह मुंह बाये खड़े हैं।
रहा सवाल गुर्जर समाज का, तो स्पष्ट है कि जिसने अपने नेताओं पर विश्वास करके अपने अनके जवानों को शहीद करवा दिया, अनेक कष्ठ झेले, भला वह आखिर कब तक और कैसे चुप रह सकता है? नेताओं ने जो राजनीति की, उसी का कारण है आज पूरा समाज अपने आपको ठगा सा सहसूस कर रहा है। आम गुर्जर तो यही समझ रहा है न कि उसे बेवकूफ बनाया जा रहा है। ऐसे में जन आक्रोष के बढ़ते दबाव में नेताओं की भी हालत खराब है। भले ही वे समझ रहे हैं कि जब तक कोर्ट में फैसला नहीं हो जाता, सरकार कुछ नहीं कर सकती, पर आपसी प्रतिद्वंद्विता और समाज के दबाव में आंदोलन करने को मजबूर हैं। कुल मिला कर सभी मजबूर हैं, अपने-अपने हिसाब से।
मगर अहम सवाल है आमजन का। वह इन सभी पक्षों की मजबूरियों के बीच पिसता जा रहा है। यह बात जायज भी लगती है कि इतर गुर्जर समाज आखिर कब तक सब्र करे। एक तो उसे इस बात का गुस्सा है कि पिछले आंदोलन के दौरान उसने अनेक कष्ट झेले, दूसरा ये कि आरक्षण के झगड़े में उसके युवाओं को बेरोजगारी से आखिर कब तक गुजरना पड़ेगा।
लब्बोलुआब, इन सभी मजबूरियों के चलते सरकार को फांसी लग रही है। उसे एक तो आंदोलनकारियों से निपटना है, दूसरी ओर खुदानखास्ता प्रतिक्रिया में कुछ हुआ तो उसे भी काबू में करना है। पिछली बार भी इसी प्रकार टकराव की नौबत आ गई थी, जिससे बड़ी मुश्किल से निकला जा सका। इतना ही नहीं उसे सुरक्षा बलों का दबाव भी झेलना पड़ता है। सरकार तो यह आदेश दे देती है कि आंदोलन से ऐसे निपटो कि कोई जनहानि न हो, मगर मौके पर मौजूद सुरक्षा कर्मी केवल मार खाने को राजी नहीं होते। हकीकत तो ये है कि पिछले आंदोलन में भी हुआ ये था कि सरकारी अधिकारी सुरक्षा बलों के आगे बेबस हो गए थे। मार खाते सुरक्षा कर्मियों ने सरकारी आदेशों को मानने से इंकार कर दिया था। परिणामस्वरूप खुल कर गोलीबारी हुई और अनेक मारे गए।
बहरहाल, अब सरकार के पास सिर्फ यही चारा है कि वह येन-केन-प्रकारेण गुर्जर नेताओं को वस्तुस्थिति की दुहाई दे कर फिलहाल शांत करे, वरना प्रदेश की वह कष्ट झेलेगी, जिसकी कल्पना से मन सिहर उठता है।

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

अब उमा को थूक कर चाटने की तैयारी

पार्टी विथ दि डिफ्रेंसज् का तमगा लगाए हुए भाजपा समझौता दर समझौता करने को मजबूर है। पहले उसने पार्टी की विचारधारा को धत्ता बताने वाले जसवंत सिंह व राम जेठमलानी को छिटक कर गले लगाया, कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा व राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे की बगावत के आगे घुटने टेके और अब उमा भारती को थूक कर चाटने को तैयार है। हालांकि फिलवक्त उन्होंने अपनी राजनीतिक दिशा तय करने के लिए कुछ दिन की मोहलत मांगी है, मगर पक्की जानकारी यही है कि पार्टी के शीर्षस्थ नेता लाल कृष्ण आडवानी उन्हें पार्टी में वापस लाने की पूरी तैयार कर चुके हैं।
राजनीति में समझौते तो करने ही होते हैं, मगर जब से भाजपा की कमान नितिन गडकरी को सौंपी गई है, उसे ऐसे-ऐसे समझौते करने पड़े हैं, जिनकी कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। असल में जब से अटल बिहारी वाजपेयी व लाल कृष्ण आडवाणी कुछ कमजोर हुए हैं, पार्टी में अनेक क्षत्रप उभर कर आ गए हैं, दूसरी पंक्ति के कई नेता भावी प्रधानमंत्री के रूप में दावेदारी करने लगे हैं। और सभी के बीच तालमेल बैठाना गडकरी के लिए मुश्किल हो गया है। हालत ये हो गई कि उन्हें ऐसे नेताओं के आगे भी घुटने टेकने पड़ रहे हैं, जिनके कृत्य पार्टी की नीति व मर्यादा के सर्वथा विपरीत रहे हैं।
ज्यादा दिन नहीं बीते हैं। पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की तारीफ में पुस्तक लिखने वाले जसवंत सिंह को बाहर का रास्ता दिखाने के चंद माह बाद ही फिर से गले लगा लिया था। कितने अफसोस की बात है कि अपने आपको सर्वाधिक राष्ट्रवादी पार्टी बताने वाली भाजपा को ही हिंदुस्तान को मजहब के नाम पर दो फाड़ करने वाले जिन्ना के मुरीद जसवंत सिंह को फिर से अपने पाले में लेना पड़ा।
वरिष्ठ एडवोकेट राम जेठमलानी का मामला भी थूक कर चाटने के समान है। भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से करने, जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार देने, पार्टी की मनाही के बाद इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लडऩे, संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत करने और पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतरने वाले जेठमलानी को पार्टी का प्रत्याशी बनाना क्या थूक कर चाटने से कम है।
पार्टी में क्षेत्रीय क्षत्रपों के उभर आने के कारण पार्टी को लगातार समझौते करने पड़ रहे हैं। विधायकों का बहुमत साथ होने के बावजूद विधानसभा में विपक्ष के नेता पद से हटाए जाने के आदेश की अवहेलना करने पर पार्टी वसुंधरा के खिलाफ कठोर निर्णय करने से कतराती रही। वजह साफ थी वे राजस्थान में नई पार्टी बनाने का मूड बना चुकी थीं, जो कि भाजपा के लिए बेहद कष्टप्रद हो सकता था। संघ लॉबी चाह कर भी वसुंधरा के कद को नहीं घटा पाई। उन्हें केन्द्रीय कार्यकारिणी में सम्मानजनक पद देना पड़ा। पार्टी ने सोचा कि ऐसा करने से वसुंधरा को राजस्थान से कट जाएंगी, मगर वह मंशा पूरी नहीं हो पाई। प्रदेश अध्यक्ष भले ही उसकी पसंद का है, मगर आज भी राज्य में पार्टी की धुरी वसुंधरा ही हैं। इसका सबसे बड़ा सबूत ये है कि वे पार्टी की राह से अलग चलने वाले राम जेठमलानी को न केवल पार्टी का अधिकृत प्रत्याशी बनवा लाई, अपितु अपनी कूटनीतिक चालों से उन्हें जितवा भी दिया। वसुंधरा के मामले में पार्टी की स्थिति कितनी किंकर्तव्यविमूढ़ है, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब से उन्होंने विपक्ष के नेता का पद छोड़ा है, आज तक दूसरे किसी को उस पद पर आसीन नहीं किया जा सका है।
हाल ही कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा के मामले में भी पार्टी को दक्षिण में जनाधार खोने के खौफ में उन्हें पद से हटाने का निर्णय वापस लेना पड़ा। असल में उन्होंने तो साफ तौर पर मुख्यमंत्री पद छोडऩे से ही इंकार कर दिया था। उसके आगे गडकरी को सिर झुकाना पड़ गया।
उमा भारती के मामले में भी पार्टी की मजबूरी साफ दिखाई दे रही है। जिन आडवाणी को पहले पितातुल्य मानने वाली मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने उनके ही बारे में अशिष्ट भाषा का इस्तेमाल किया, वे ही उसे वापस लाने की कोशिश में जुटे हुए हैं। पार्टी से बगावत कर नई पार्टी बनाने को भी नजरअंदाज करने की नौबत यह साफ जाहिर करती है कि भाजपा अंतद्र्वंद में जी रही है।
थोड़ा पीछे मुड़ कर देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि पिछले लोकसभा चुनाव के बाद ही भाजपा का ढांचा चरमराया हुआ है। कांग्रेसनीत सरकार लाख बुराइयों के बावजूद सत्ता पर फिर काबिज हो गई। मूलत: हिंदुत्व की पक्षधर, मगर राजनीतिक मजबूरी के चलते मुसलमानों को भी गले लगाने का नाटक करते हुए दोहरी मानसिकता में जी रही भाजपा की तो चूलें ही हिल गईं। पार्टी में इतना घमासान हुआ कि एक बारगी तो नाव के खिवैया बन कर डूबने से बचाने वाले शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी ही पार्टी के भीतर अप्रांसगिक महसूस होने लगे। यहां तक कि कट्टर हिंदुत्व के पक्षधरों को ही हार की मूल वजह माना जाने लगा। पार्टी के दिग्गजों को अपनी मौलिक विचारधारा की दुबारा समीक्षा करने नौबत आ गई। उन्हें यही समझ में नहीं आ रहा था कि पार्टी को प्रतिबद्ध हिंदुत्व की राह पर चलाया जाए अथवा लचीले हिंदुत्व का रास्ता चुना जाए। आखिरकार सभी संघ की ओर ही मुंह ताकने लगे। संघ ने कमान संभाली और नए सिरे से शतरंज की बिसात बिछा दी। उसी का ही परिणाम था कि पार्टी को लोकसभा में विपक्ष का नेता बदलना पड़ा। बदले समीकरणों में गडकरी अध्यक्ष पद तो काबिज हो गए, मगर उन्हें लगातार समझौते करने पड़ रहे हैं।

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

दो साल में कांग्रेसियों को कुछ नहीं दिया गहलोत ने


प्रदेश के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भले ही अपने दो साल के कार्यकाल की उपलब्धियां गिना कर नहीं थकें, मगर जिन कार्यकर्ताओं के दम पर वे सत्ता का स्वाद आनंद भोग रहे हंै, उन्हें तो निराशा ही हाथ लगी है। नरेगा, प्रशासन शहरों की ओर, प्रशासन गांवों की ओर जैसे अभियानों से आम आदमी को भले ही दोनों हाथों से लुटा रहे हों, मगर कार्यकर्ताओं को उन्होंने कुछ नहीं दिया है। वे अब भी राजनीतिक नियुक्तियों को तरस रहे हैं। रोष तो उनमें बहुत है, मगर कर कुछ नहीं पा रहे। मलाईदार पदों की छोड़ भी दें, मगर संगठन के पदों पर नई नियुक्तियों का इंतजार करते-करते भी एक साल बीतने को आया है। सत्ता व संगठन के बीच तालमेल न होने के कारण प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद पर भी नई नियुक्ति नहीं हो पा रही। कांग्रेस कार्यकर्ताओं को गहलोत इस रवैये पर बड़ा आश्चर्य हो रहा है कि क्या से वही गहलोत हैं, जिन्होंने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष होने के नाते प्रदेशभर के कार्यकर्ताओं में अपनी पहचान बनाई थी और उन्हें कार्यकर्ताओं की भावनाओं के बारे में भी भरपूर जानकारी है।
राजनीति जानकारों का मानना है कि पिछली बार के मुख्यमंत्री गहलोत और इस बार के मुख्यमंत्री गहलोत में काफी फर्क है। इस बार जब से मुख्यमंत्री बने हैं, तब से न जाने कितनी बार मीडिया उनसे पूछ चुका है कि राजनीतिक नियुक्तियां कब कर रहे हैं और वे भी न जाने कितनी बार यह कह चुके हैं कि बस अब जल्द ही तोहफे बांटे जाएंगे। रहा सवाल कांग्रेसियों का तो जो भी उनके पास हाजिरी देने जाता है, उससे बड़ी गर्मजोशी से मिल कर जादूई स्टाइल में मुस्कराते हैं और सिर्फ एक ही बात कहते हैं, तसल्ली रखो, मुझे सब कुछ ध्यान में है, जल्द ही कुछ करेंगे। ऐसा कहते-कहते उन्होंने पूरे दो साल निकाल दिए। अब तो कांग्रेसियों को भी निराशा होने लगी है। उन्हें बार-बार जा कर भिखारी की तरह मांगने में शर्म आने लगी है। कई कार्यकर्ता तो इस कारण उनके सामने जाने से कतराने लगे हैं कि कहीं टोक न दें कि एक बार कह दिया न कि तसल्ली रखें, समय आने पर सब कुछ मिलेगा। राजनीनिक नियुक्ति की आशा में अपना निजी व्यवसाय चौपट कर चुके कांग्रेसी तो अब सब कुछ छोड़ छाड़ कर वापस धंधे पर ध्यान देने की सोच रहे हैं।
हालांकि दो साल पूरे होने पर एक बार फिर राजधानी में तोहफे बंटने की चर्चा जोरों पर है, मगर कांग्रेसियों को यही लगता है कि जन्म से जादूगर गहलोत के झोले में से कुछ नहीं निकलने वाला है। वे इस बार काफी कंजूस हो गए हैं। या फिर उन्हें यह समझ में आ गया है कि जब तक कुछ नहीं बांटो, कार्यकर्ता मुंह ताकता है, देने के बाद तो मुट्ठी खुल जाएगी। या फिर उन्हें ये रहस्य पता लग गया है कि कार्यकर्ताओं को देने के लालच में अटकाए रखो तो वे काम करते हैं, मलाई चखाने से तो बिगड़ जाते हैं। अभी तो कोई सेवा मांग रहे हैं और सेवा कार्य दे दिए जाने के बाद खुद की सेवा में लग जाएंगे। इसी का परिणाम रहा कि पिछली बार सुशासन देने के कारण देश के नंबर वन मुख्यमंत्री घोषित होने के बाद भी सत्ता में लौट नहीं पाए। अकाल राहत के नाम पर इतना लुटाया कि चुनाव के दो-तीन माह के बाद तक ग्रामीणों के घरों में गेहूं की बोरियां पड़ी थीं, मगर यही सेवा मांगने वाले जन-जन तक गहलोत की उपलब्धियों को नहीं पहुंचा पाए थे। कार्यकर्ताओं व छोटे नेताओं की छोडिय़े, मंत्री पद पर बैठे नेता तक यहीं इंतजार कर रहे हैं कि उन्हें अब तक के परफोरमेंस को देख कर कोई अच्छा विभाग मिल जाएगा। कई विधायक भी इसी इंतजार में हैं कि कब मंत्रीमंडल का विस्तार अथवा फेरबदल हो और उनका नंबर आए।
समझदानी में सियासत की बारीकियां रखने वाले मानते हैं कि असल में गहलोत को इतनी फुर्सत ही नहीं कि कार्यकर्ताओं पर ध्यान दे पाएं। असल में उन्हें तो अपनी ही कुर्सी की चिंता लगी रहती है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सी. पी. जोशी ने नींद हराम कर रखी है। वे आए दिन कोई घोचा कर देते हैं। केन्द्रीय मंत्री होने के कारण अधिकांश समय दिल्ली में रहते हैं, इस कारण वहां बैठे-बैठे सोनिया गांधी के प्रमुख सलाहकारों के बीच चक्कर चलाते रहते हैं। खुद ही कई बार मुख्यमंत्री पद का दावेदार होने की सुर्री छोड़ चुके हैं। हालांकि बताया जाता है कि सोनिया दरबार में गहलोत के पैर जमे हुए हैं, मगर राजनीति का क्या भरोसा, कब पलटी खा जाए। इसकी वजह ये है कि कांग्रेस में सत्ता का केन्द्र अब केवल सोनिया गांधी ही नहीं है, राहुल बाबा की भी चलती है। और राहुल के रजिस्टर में जोशी ने खासे नंबर हासिल कर रखे हैं। यही वजह है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद पर नई नियुक्ति नहीं हो पा रही है। जोशी चाहते हैं उनकी पसंद का अध्यक्ष हो, जो गहलोत को चैक करता रहे, जबकि गहलोत चाहते हैं कि उनसे ट्यूनिंग बैठाने वाला अध्यक्ष बने। इसी खींचतान में इसी साल एक जनवरी को शुरू हुए संगठन चुनाव की प्रक्रिया अब तक पूरी नहीं हो पा रही है। पीसीसी व एआईसीसी के सदस्य तो तय हो गए, सदर का फैसला नहीं हो पा रहा। और जब तक सदर का फैसला नहीं होगा, तब तक भला सत्ता व संगठन के बीच मलाईदार पदों का बंटवारा कैसे हो सकता है?

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

अधिकार दे कर फिर छीनने लगी है सरकार

महात्मा गांधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नाम की दुहाई दे कर सत्ता के विकेन्द्रीकरण और ग्राम स्वराज के नारे देने वाली प्रदेश की कांग्रेस सरकार दोहरी नीति पर चलती दिखाई दे रही है। एक ओर वह ग्राम पंचायतों को अधिकार देकर मजबूत करने की लफ्फाजी करती है तो दूसरी ओर धीरे से उनके अधिकार छीन रही है। बुधवार को प्रदेश सरकार के एक प्रमुख चालक व शिक्षा मंत्री मास्टर भंवरलाल अजमेर में शिक्षा विभाग की संभागीय बैठक में भाग लेने आए तो उन्होंने अधिकारियों को जो स्पष्ट निर्देश दिए, उससे तो साफ जाहिर है कि सरकार के दिखाने के दांत और हैं तो खाने के और।
मेघवाल ने अधिकारियों को उनके अधिकारों के प्रति उकसाते हुए साफ तौर पर कहा कि वे जनप्रतिधियों से घबराएं नहीं और केवल उन्हें बताए नियमानुसार ही काम करें। इसका मतलब साफ है कि मंत्री महोदय ने जो कहा है केवल उसे ही मानना है, जिला प्रमुख व प्रधान का नहीं। हद तो तब हो गई, जब उन्होंने उन्हीं की तरह जनता के वोटों से जीत कर आए जिला प्रमुखों व प्रधानों के बारे में कठोरता से कह दिया कि वे शहरी क्षेत्र की स्कूलों व अन्य हस्तांतरित विभागों में हस्तक्षेप नहीं कर पाएंगे। पंचायतीराज के जनप्रतिनिधि केवल गांवों में ही अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर सकते हैं, वह भी सरकार की ओर से तय सीमा तक। यानि ग्रामीण जनप्रतिधियों के अधिकारों को सीमित किया जा रहा है। अर्थात चलेगी तो केवल बड़ी सरकार की, गांवों की सरकारें केवल दिखाने के लिए बनाई गई हैं? तो फिर सवाल ये उठता है कि आखिर शिक्षा सहित अन्य विभाग पंचायतीराज को हस्तांतरित करने का ढिंढोरा पीटा ही क्यों था? यदि अधिकारियों के पास ही सारे अधिकार सुरक्षित हंै तो फिर चाहे अधिकार विभिन्न विभागों के प्रदेश प्रमुखों के पास हों या फिर पंचायतीराज के अधिकारियों के पास, क्या फर्क पड़ता है? अहम सवाल ये भी उठता है कि ग्रामीण जनप्रतिनिधियों को जनता ने चुन कर भेजा ही क्यों है, जब अधिकारी केवल सरकार के इशारे पर ही काम करेंगे? कहीं ऐसा तो नहीं कि जब सरकार ने गांवों की सरकार को मजबूत करने का निर्णय किया था तब उसे ख्याल में ही नहीं था कि ये सरकारें उसके अधिकारों में आड़े आएंगी? वरना अब जा कर इस प्रकार के निर्देश देने की जरूरत ही क्यों पड़ी है?
असल में शिक्षा मंत्री महोदय का यह रुख इस कारण बना दिखता है कि उन्होंनेे समायोजन के तहत जिन शिक्षकों को तबादला कर दिया था, उन पर जिला प्रमुखों व प्रधानों के दखल के कारण अमल नहीं हो पाया था। अजमेर में इसका प्रत्यक्ष उदाहरण सबके सामने है। जिला शिक्षा अधिकारी प्रारंभिक बिरदा सिंह रावत को केवल इसी कारण यहां से रुखसत होना पड़ा क्यों कि उन्होंने जिला प्रमुख के दबाव में सरकारी तबादला सूची को एक तरफ रख दिया था। शिक्षा मंत्री ने उन चालीस तबादलों पर रोक के आदेश को निरस्त करने को कहा। साथ ही यह भी कहा कि किसी के भी कहने पर गलत काम मत करो। शिक्षा मंत्री ने जिला परिषद की सीईओ शिल्पा से जवाब तलब के दौरान जो दिशा-निर्देश दिए, उससे तो यह साफ झलक रहा था कि वे जिला प्रमुख श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा के खिलाफ उन्हें उकसा रहे हैं। असल बात तो ये है कि शिल्पा ने बाकायदा अपना दु:खड़ा रोया था, जिस पर उन्होंने कहा कि वे तसल्ली रखें, सरकार जल्द ही नए दिशा-निर्देश जारी करके भेज रही है। शिल्पा ने पूछा था कि क्या सारी फाइलें जिला प्रमुख के पास भेजना जरूरी है तो शिक्षा मंत्री ने कहा कि इस बारे में तीन मंत्रियों की कमेटी के निर्देश आपके पास आ जाएंगे।
शिक्षा मंत्री ने यह भी कहा कि तबादलों पर पूर्ण प्रतिबंध है। परिषद व पंचायत समितियों में स्थापना समितियों ने यह काम शुरू कर दिया है। इस पर सीईओ को लगाम कसनी होगी। वे कंट्रोल अपने हाथ में लें। वे दबाव में नहीं आएं।
कुल मिला कर शिक्षा मंत्री महोदय ने साफ तौर पर ग्रामीण जनप्रतिनिधियों को धत्ता बताते हुए अधिकारियों को और अधिकार संपन्न कर दिया है। ऐसे में जनप्रतिनिधियों व अधिकारियों में टकराव और बढ़ेगा। जो अधिकारी मजबूत होगा वह तो सरकार की शह पर जनप्रतिनिधि से टकराव मोल ले लेगा और जो अधिकारी कमजोर होगा व जनप्रतिनिधि की मानेगा, सरकार उसकी खाल खींच लेगी। सरकार के इस रुख से तो यही प्रतीत होता है कि जिला परिषदों के जरिए तृतीय श्रेणी शिक्षकों की जो भर्ती होने वाली है, वह कहने भर तो जिला परिषदों के माध्यम से होगी, दखल पूरा राज्य सरकार का ही रहेगा।

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

गर्ग साहब, तो फिर विखंडन कहते किसे हैं?

राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, अजमेर का जयपुर में भी एक भवन बनाए जाने पर जैसे ही स्थानीय विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी ने विखंडन की आशंका जताई, वैसे ही त्वरित प्रतिक्रिया देते हुए बोर्ड के अध्यक्ष डॉ. सुभाष गर्ग ने इस आशंका को निराधार बता दिया है। उन्होंने कहा कि बोर्ड का विखंडन नहीं किया जा रहा है। जयपुर में जो भवन बनाया जाना है, उसमें विद्यार्थी सेवा केन्द्र, उत्तर पुस्तिका संग्रहण और गेस्ट हाउस प्रस्तावित हैं। उन्होंने तर्क तो बड़ी चतुराई से दिए हैं, मगर उन्हीं से यह साबित हो रहा है, बोर्ड के काम का विकेन्द्रीकरण किया जा रहा है। विकेन्द्रीकरण और विखंडन भले ही शब्द अलग-अलग हों, मगर उनका प्रतिफल तो एक ही है। आखिरकार उससे बोर्ड का अजमेर में हो रहा काम बंटेगा ही ना।
सवाल उठता है कि जब बोर्ड के पास यहां पर ही पर्याप्त स्थान है और नया निर्माण कार्य भी हो रहा है तो आखिर जयपुर में उत्तर पुस्तिका संग्रहण व प्रशिक्षण केन्द्र के लिए अलग से जगह की जरूरत क्या है? जयपुर में अलग से बोर्ड भवन बना रहे हैं तो यह भी स्पष्ट है कि इससे अजमेर के बोर्ड दफ्तर का काम कुछ कम हो जाएगा। आखिर विखंडन फिर किसे किसे कहा जाता है?
उन्होंने तर्क ये दिया है कि डीपीसी सहित अन्य बैठकें जयपुर में बन रहे भवन के गेस्ट हाउस में हुआ करेंगी। अव्वल तो जयपुर में बैठकें करेंगे ही क्यों, क्या वे बैठकें अजमेर में नहीं हो सकतीं? क्या ऐसा करके बोर्ड प्रबंधन की बैठकों को विखंडित नहीं किय जा रहा है? फिर बाद में डॉ. गर्ग या उनके बाद आने वाले अध्यक्ष जयपुर में ही सारी या अधिकतर बैठकें किया करेगा तो उसे रोकने वाला कौन होगा? वे ये कह रहे हैं कि गेस्ट हाउस से बोर्ड कर्मचारियों को सुविधा होगी। क्या उन्होंने आकलन कर लिया है कि बोर्ड कर्मचारियों के जयपुर में अन्यत्र ठहरने का खर्चा गेस्ट हाउस बनने व उसे संचालित करने पर सालभर में होने वाले खर्चे से काफी कम है?
उन्होंने विद्यार्थियों की सुविधा के लिए जयपुर के नए भवन सहित प्रदेश के सभी जिलों में विद्यार्थी सेवा केन्द्र खोले जाने की बात कही है। क्या यह बोर्ड के काम का विकेन्द्रकरण और बोर्ड का विखंडन नहीं है? क्या इससे अजमेर के लोगों की आय पर असर नहीं पड़ेगा? हालांकि उनकी यह बात सही है कि इससे विद्यार्थियों को सुविधा होगी, मगर यदि केवल विद्यार्थी हित की ही बात है तो यह स्वीकार करने में फिर दिक्कत क्या है कि हां, एक तरह से विखंडन (विकेन्द्रीकरण) ही कर रहे हैं।
वस्तुत: बोर्ड विखंडन की बात से कहीं कर्मचारी न भडक़ जाएं, उन्होंने पहले ही साफ कर दिया कि यहां से कोई भी शाखा और कोई भी कर्मचारी स्थानांतरित किया जा रहा है। सवाल ये उठता है कि जयपुर के भवन में क्या जादू या रोबोट से काम करवाया जाएगा? जाहिर तौर पर वहां भी कर्मचारियों की जरूरत होगी। भले ही यहां से किसी कर्मचारी को न भेजा जाए, मगर वहां कर्मचारी नियुक्त तो करने ही होंगे। क्या वे बोर्ड कर्मचारी नहीं कहलाए जाएंगे? क्या उनकी तनख्वाह बोर्ड के फंड से नहीं दी जाएगी? और इस बात की गारंटी क्या है कि अभी नहीं तो भविष्य में भी यहां का कर्मचारी वहां नहीं भेजा जाएगा? क्या उन्होंने इस बारे में बोर्ड कर्मचारी संघ से कोई करार किया है? क्या उनके इस आश्वासन का कोई लिखित दस्तावेज मौजूद है? आश्चर्य तो इस बात का है कि बोर्ड के ताजा कदम से सबसे ज्यादा जो कर्मचारी वर्ग प्रभावित होगा, उन्हीं का संगठन चुप बैठा है। संदेह होता है कि क्या उन्होंने संघ के नेताओं को सैट कर लिया है?
असल बात तो ये है कि बोर्ड का विखंडन तो पहले से ही शुरू हो चुका है। पहले बोर्ड दूरस्थ शिक्षा के तहत परीक्षा आयोजित करवाता था, उसे यहां बंद कर अलग से ओपन बोर्ड बना दिया गया। क्या यह विखंडन नहीं है? इसी प्रकार पहले बोर्ड खुद पुस्तकों का प्रकाशन करता था, वह उसने पाठ्यपुस्तक मंडल को सौंप दिया है। क्या यह भी विखंडन नहीं है? इस विखंडन से इसी एक साल में बोर्ड की करीब दस से बारह करोड़ की आय छिन गई है।
ऐसा प्रतीत होता है कि बोर्ड अध्यक्ष को बोर्ड की आमदनी से भी कोई लेना-देना ही नहीं है। वे तो केवल वाहवाही लूटना चाहते हैं। जयपुर व अजमेर में हो रहे निर्माण कार्यों पर तकरीबन तीस करोड़ रुपए लग जाएंगे। इसका ब्याज कितना होता है? क्या यह उन्हें पता नहीं है कि बोर्ड की जिस आय को जो खर्च किया जा रहा है, वह बोर्ड कर्मचारियों की तनख्वाह बांटने के काम आती है? अभी तो कुछ भी नहीं हुआ है, आगे-आगे देखिए होता है क्या? ये तो गनीमत रही कि मौजूदा शिक्षा मंत्री मास्टर भंवरलाल ने केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल के इस दबाव को फिलहाल नहीं माना कि दसवीं की परीक्षा स्कूल स्तर पर ही करवा लिया जाए और बोर्ड केवल बारहवीं की परीक्षा आयोजित करे। आज नहीं तो कल, ऐसा होना ही है। तब परीक्षा से होने वाली बोर्ड की आय एक तिहाई रह जाएगी। बोर्ड अध्यक्ष भले ही यह कह रहे हैं कि बोर्ड में नई भर्ती का प्रस्ताव भेजा जा रहा है, लेकिन वस्तुस्थिति ये है कि बाद में हालत ये हो जाएगी कि मौजूदा स्टाफ ही सरप्लस नजर आने लगेगा।
कुल मिला कर सच तो ये है कि बोर्ड को विखंडित तो किया जा रहा है, बस चालाकी ये है कि उसे वे विखंडित करना मान नहीं रहे हैं।

सोमवार, 6 दिसंबर 2010

ये कैसा आदर्श पेश किया गडकरी ने?

च्पार्टी विथ द डिफ्रेंसज् के नाम पर वोट बटोरने वाली और राजनीति में शुचिता की झंडाबरदार भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने अपने बेटे की शादी को जिस शाही अंदाज से अंजाम दिया है, उससे यह साबित हो गया है कि पार्टी अब तथाकथित दकियानूसी आदर्शवाद के मार्ग का परित्याग कर चुकी है।
गडकरी के बेटे की शादी कितने भव्य तरीके से हुई है, इसका अनुमान इसी बात से लग जाता है कि अकेले शादी के निमंत्रण पत्रों तक पर एक करोड़ रुपए खर्च हुए हैं। शादी देश की सत्ता पर काबिज होने की दूसरी सबसे प्रबल दावेदार पार्टी भाजपा के सिरमौर की थी, इस नाते उसकी भव्यता और विशालता भी उसी के अनुरूप थी। प्रीतिभोज में देश की नामचीन हस्तियों के साथ तकरीबन दो लाख लोगों के शिकरत करने के कारण नागपुर का सडक़ यातायात तो क्या हवाई मार्ग तक जाम हो गया। वीवीआईपी मेहमानों के विमानों में आने के कारण एक बार तो हालत यह हो गई कि तकरीबन तीस विमान नागपुर के आसमान में मंडराते नजर आए। उन्हें आसपास की हवाई पट्टियों पर उतारना पड़ा। भोज में कैसे व्यंजनादि कैसे होंगे, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। और इस पूरे आयोजन पर कितना पैसा फुंका होगा, इसका भी अंदाजा लगाया ही जा सकता है। आज जब शादियों पर अनाप-शनाप धन खर्च को आलोचना की दृष्टि से देखा जाता है, गडकरी के घर हुए इस जंबो आयोजन ने विरोधी दलों को तो छींटाकशी का मौका मिला ही है, खुद भाजपा के कार्यकर्ताओं तक में खुसर-पुसर है। चाय-पानी व बीड़ी-सिगरेट की थडिय़ों पर होने वाली सियासी बहसों में उनकी बोलती बंद हो गई है।
यह सही है कि शादी का आयोजन उनका निहायत निजी और पारिवारिक मामला है। वे कहां, कब, कैसे, किससे और कितनी धूमधाम से करते हैं, इसका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है। उनके पास अपार धन है तो उसे वे खर्च करेंगे ही। और कैसे खर्च करते हैं, यह भी उनके क्षेत्राधिकार का मामला है। कोई पार्टी फंड से अनुदान लेकर तो कर नहीं रहे कि पार्टी की मीटिंग बुलवा कर तो तय करेंगे। और वे धन कुबेर हैं तो अपने दम पर, न कि भाजपा सदर होने के कारण। कदाचित सदर भी उसी के दम पर बने हों। ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने सत्ता का स्वाद चखा है, इस कारण तब जमा किया पैसा अब खर्च कर रहे हैं। और सबसे बड़ी बात ये कि क्या पार्टी आदर्शों के चक्कर में अपने बेटे की खुशी को कुर्बान कर देंगे? आदमी आखिर अपने परिवार, अपने बच्चों की खातिर कमाता है, उन पर ही खर्च नहीं करेगा तो कहां करेगा? खुशी के मौके पर किसी प्रकार की टिप्पणी करना भी अशोभनीय ही कहा जाएगा। कदाचित ऐसी टिप्पणी को इस मायने में भी लिया जा सकता है कि पूंजीवादी व्यवस्था का विरोध वे ही करते हैं, जिनके पास पूंजी नहीं होती। मगर बात छिड़ती है तो दूर तलक जाती है। उनके इस कृत्य से यह तो साबित हो ही गया है कि भाजपा भूखे-नंगों की पार्टी नहीं है। वह जमाना गया जब कार्यकर्ता के जेब खर्च से पार्टी के छोटे-मोटे आयोजन हुआ करते थे। चुनावों में कार्यकर्ता अपने घर का खाना खा कर प्रचार पर निकलते थे। अब तो पार्टी के खुद के पास ही मोटे आसामी हैं। अकेले गडकरी ने ही क्यों इससे पहले भाजपा नेता बलबीर पुंज व राजीव प्रताप रूड़ी भी इसी प्रकार के आलीशान भोज आयोजित कर पार्टी कल्चर के हो रहे रिनोवेशन का प्रदर्शन कर चुके हैं। ज्यादा दूर क्यों जाएं, राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की ऐयाशियों की कानाफूसी क्या कम हुआ करती थी। राजघराने से होने कारण उनके ठाठ ही ऐसे थे कि मुख्यमंत्री का सरकारी निवास उनको एक दड़बे जैसा लगता था, जिसके जीर्णोद्धार पर उन्होंने अनाप-शनाप सरकारी धन लगा दिया था। खैर, जितने बड़े लोग, उतनी ही बड़ी बातें। अपुन ठहरे छोटे आदमी। केवल इतना ही जानते हैं कि भाजपा की शीर्ष पंक्ति के नेता ही जब अपने सार्वजनिक जीवन में ऐसा व्यवहार करेंगे तो पार्टी कार्यकर्ताओं को आम जनता के बीच जा कर च्पार्टी विथ द डिफ्रेंसज् के नाम पर वोट हासिल करना कठिन हो जाएगा।

रविवार, 5 दिसंबर 2010

क्या खादिमों की तरह तीर्थ पुरोहितों से भी सख्ती की उम्मीद करें?

विश्व प्रसिद्ध तीर्थराज पुष्कर में हाल ही एक और विदेशी युवती को नशे की हालत में हंगामा करते हुए पकड़ा गया तो एक छोटी सी खबर ऐसे छप कर रह गई, जैसे किसी राजनीतिक संगठन ने नालियों की सफाई न होने की शिकायत की हो। न तो आम जनता में किसी को कोई आश्चर्य हुआ, न ही पवित्रता की ऊंची-ऊंची बातें करने वाले किसी राजनीतिक व सामाजिक संगठन को मलाल।
असल में तीर्थराज की सडक़ों पर विदेशी पर्यटकों का सरेआम अश्लील प्रदर्शन और हंगामा अब आम होता जा रहा है। कभी वे सरे राह नग्न हो कर पुष्कर की पौराणिक मर्यादा को भंग करते हैं तो कभी उठाईगिरों की तरह उत्पात मचाते हैं। इस प्रकार के अधिकतर मामलों में पाया गया है कि वे मादक पदार्थ का अत्यधिक सेवन के कारण मानसिक संतुलन खो देते हैं। उन्हें कब्जे में लेने में ही पुलिस को काफी मशक्कत करनी पड़ती है। रहा सवाल उनके खिलाफ कार्यवाही का तो संबंधित देश के दूतावास को सूचित कर उन्हें यहां से रवाना करने के सिवा पुलिस के पास और कोई चारा नहीं होता। इस फौरी कार्यवाही के कारण विदेशी बेखौफ हो कर खुले सांड की तरह पुष्कर में ऐसे विचरते हैं, मानो अतिथि देवा भव की परंपरा वाला यह देश उनकी चरागाह है। वे चाहे जो करें, कोई कुछ कहने वाला नहीं है।
यह हालत उस तीर्थ स्थल की है, जिसके बारे में वेद पुराणों में कहा गया है, च्च्पर्वतानां यथा मेरू, पक्षिणाम् गरुड़: यथा: तदवत समस्त तीर्थाणाम् आदि पुष्कर मिष्यते।ज्ज् अर्थात जिस प्रकार पर्वतों में सुमेरू पर्वत और पक्षियों में गरुड़़ का शिरोमणि महत्व है, उसी प्रकार समस्त तीर्थ स्थलों में पुष्कर तीर्थ सर्वोपरि तीर्थ है। पुराणों में उल्लेख है कि पृथ्वी के तीन नेत्र हैं, इनमें प्रथम और प्रमुख नेत्र पुष्कर है। पुष्कर नगरी को पृथ्वी का प्रथम नेत्र कहलाने का सौभाग्य प्रजापति ब्रह्मा के आशीर्वाद से प्राप्त हुआ है, जिन्होंने इसी नगरी से सम्पूर्ण बह्मांड की रचना की। ऐसे महान तीर्थराज की दुर्गति देख कर तो ऐसा लगता है कि यहां का कोई धणी-धोरी ही नहीं है।
यह सही है कि सरकार पुष्कर के विकास के प्रति सतत प्रयत्नशील है। हाल ही संपन्न हुए मेले के समापन समारोह में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने तो यहां कहा कि आगामी वर्ष का विख्यात पुष्कर मेला और अधिक लोकप्रिय व सुविधापूर्ण होगा। इसमें भी कोई दोराय नहीं कि पर्यटन महकमे की ओर किए जाने वाले प्रचार-प्रसार के कारण यहां विदेशी पर्यटक खूब आकर्षित हुए हैं और सरकार की आमदनी भी बढ़ी है, मगर विदेशी पर्यटकों के ऊलजलूल तरीके से अंग प्रदर्शन करते हुए विचरण करने से यहां की मर्यादा और पवित्रता छिन्न-भिन्न हुई है। मगर अफसोस कि उन्हें कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है। इस मामले में तीर्थ पुरोहितों से तो दरगाह के खादिम ही अच्छे हैं, जिन्होंने कैटरीना कैफ के उघाड़ी टांगों में जियारत करने पर हंगामा कर दिया और आखिर उसे माफी मांगनी पड़ी।
होना तो यह चाहिए कि विदेशी पर्यटकों को यहां आने से पहले अपने पहनावे पर ध्यान देने के निर्देश जारी किए जाने चाहिए। जैसे मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे में जाने से पहले सिर ढक़ने और जूते उतारने के नियम हैं, वैसे ही पुष्कर में भ्रमण के भी अपने कायदे होने चाहिए। यद्यपि इसके लिए कोई ड्रेस कोड लागू नहीं किया सकता, मगर इतना तो किया ही जा सकता है कि पर्यटकों को सख्त हिदायत हो कि वे अद्र्धनग्न अवस्था में पुष्कर की गलियों या घाटों पर नहीं घूम सकते। होटल के अंदर कमरे में वे भले ही चाहे जैसे रहें, मगर सार्वजनिक रूप से अंग प्रदर्शन नहीं करने देना चाहिए। इसके विपरीत हालत ये है कि अंग प्रदर्शन तो दूर विदेशी युगल सार्वजनिक स्थानों पर आलिंगन और चुंबन करने से नहीं चूकते, जो कि हमारी संस्कृति के सर्वथा विपरीत है। कई बार तो वे ऐसी मुद्रा में होते हैं कि देखने वाले को ही शर्म आ जाए। जब स्थानीय लोग उन्हें घूर-घूर कर देखते हंै, तो उन्हें बड़ा रस आता है। जाहिर तौर पर जब दर्शक को ऐसे अश्लील दृश्य आसानी से सुलभ हो तो वे भला क्यों मौका गंवाना चाहेंगे। स्थिति तब और विकट हो जाती है जब कोई तीर्थ यात्री अपने परिवार के साथ आता है। आंख मूंद लेने के सिवाय उसके पास कोई चारा नहीं रह जाता।
यह भी एक कड़वा सत्य है कि विदेशी पर्यटकों की वजह से ही पुष्कर मादक पदार्थों की मंडी बन गया है, जिससे हमारी युवा पीढ़ी बर्बाद होती जा रही है। इस इलाके एड्स के मामले भी इसी वजह से सामने आते रहे हैं। जहां तक प्रशासन व पुलिस तंत्र का सवाल है, उन्हें तो नौकरी और डंडा बजाने तक से वास्ता है। वह तो कानून और व्यवस्था का पालन ही ठीक से करवा ले, तो काफी है। असल में उसकी तो हालत ये है कि मुंबई ब्लास्ट का मास्टर माइंड व देश में आतंकी हमले करने का षड्यंत्र रचने के आरोप में अमेरिका में गिरफ्तार डेविड कॉलमेन हेडली के पुष्कर आ कर चले जाने तक की हवा भी नहीं लगती। ऐसे में पुष्कर की पवित्रता की जिम्मेदारी संस्कृति की वाहक आमजन की है। उसमें सर्वाधिक दायित्व है तीर्थ पुरोहितों व पुष्कर के नाम पर संस्थाएं चलाने वालों का। यह सही है कि तीर्थ पुरोहितों ने पुष्कर की पवित्रता को लेकर अनेक बार आंदोलन किए हैं, पर कहीं न कहीं वे भी स्थानीय राजनीति के कारण आंदोलनों को प्रभावी नहीं बना पाए हैं। तीर्थ पुरोहित पुष्कर में प्रभावी भूमिका में हैं। वे चाहें तो सरकार पर दबाव बना कर यहां का माहौल सुधार सकते हैं। यह न केवल उनकी प्रतिष्ठा और गरिमा के अनुकूल होगा, अपितु तीर्थराज के प्रति लोगों की अगाध आस्था का संरक्षण करने के लिए भी जरूरी है।

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

कांग्रेस में तो केवल नेहरू-गांधी का ही परिवार चलेगा

कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ने तो बगावती तेवर दिखा कर भाजपा हाईकमान को झुकने को मजबूर कर दिया, मगर खुद एक परिवार की धुरी पर ही केन्द्रित कांग्रेस ने आंध्रप्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय राजशेखर रेड्डी के पुत्र सांसद वाई. एस. जगनमोहन की राजनीतिक विरासत की मांग को ठुकरा दिया। और उसका नतीजा ये रहा कि जगन ने आखिरकार संसद के साथ पार्टी ही छोड़ दी।
असल में परिवारवाद से उत्पन्न यह समस्या दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में काफी पुरानी है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण कांग्रेस ही है, जिसमें जवाहर लाल नेहरू के बाद इंदिरा गांधी, इंदिरा गांधी के बाद राजीव गांधी, राजीव गांधी के बाद सोनिया गांधी और अब सोनिया के बाद राहुल गांधी की तैयारी। नेहरू के बाद आज तक गैर कांग्रेसी इसी मुद्दे को लेकर चिल्लाते रहे हैं, मगर आज तक इसका तोड़ नहीं निकल पाया है। यह सवाल दिमाग की दही कर देता है कि आखिर लोकतांत्रिक तरीके से सरकार बनाने वाले इस देश में मतदाता व्यक्तिवाद और परिवारवाद को ही क्यों तवज्जो देता है? ऐसा प्रतीत होता है कि सैकड़ों साल तक राजशाही में रहने की आदत के कारण आजादी के बाद कायम हुए लोकतंत्र में भी हम सामंतवाद, परिवारवाद और व्यक्तिवाद से मुक्त नहीं हो पाए हैं। हम लाख आलोचना करें परिवारवाद व व्यक्तिवाद की, मगर चलते उसी पर हैं। आंध्रप्रदेश में तो एनटीआर ने तेलुगुदेशम के रूप में क्षेत्रवाद को जन्म दिया, जो उनकी मृत्यु के बाद परिवारवाद में तब्दील हो गया। अकेले आंध्र ही क्यों और राज्यों में भी परिवारवाद या व्यक्तिवादी राजनीति ही हावी है। असल तथ्य तो ये है कि जिन राज्यों में कांग्रेस व भाजपा के बीच सीधा मुकाबला होता है, वहां अलग से कोई परिवार नहीं पनप पाया, जिनमें राजस्थान व मध्यप्रदेश का उदाहरण दिया जा सकता है। भाजपा में आमतौर पर परिवारवाद नहीं है और कांग्रेस में नेहरू-गांधी परिवार के अतिरिक्त किसी और को पनपने नहीं दिया जाता। अगर पनपता भी है तो स्वतंत्र रूप से नहीं। आंध्रप्रदेश में जगन मोहन ने उसका उदाहरण बनने की कोशिश की, जिसे कांग्रेस ने नकार दिया। जिन राज्यों में गैर कांग्रेसी और गैर भाजपाई पनपे हैं वे या तो परिवारवाद या व्यक्तिवाद के पोषक रहे हैं। जम्मू-कश्मीर में फारुख अब्दुल्ला, बिहार में लालू प्रसाद, हरियाणा में देवीलाल के परिवार इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। रहा सवाल नितीश कुमार व मायावती का तो वे भले ही अलग पार्टी बना कर चल रहे हैं, मगर उनकी राजनीति भी व्यक्तिवादी तो है ही।
परिवारवाद अकेले राज्यों में ही नहीं, लोकसभा में भी है। पिछले लोकसभा चुनाव में राजनीतिक दिग्गजों के कम से कम 35 परिजन या रिश्तेदार चुने गए। इनमें दूर के रिश्तेदारों को भी शामिल कर लें तो यह संख्या अद्र्धशतक के पार पहुंचती है। नेहरू-गांधी परिवार के राहुल गांधी और वरुण गांधी, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाई एस राजशेखर रेड्डी के पुत्र जगन मोहन, कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा के बेटे बी वाई राघवेंद्र, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि के बेटे एमके अझागिरी और उनकी बेटी कानिमोझी तथा भतीजा दयानिधि मारन, दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित, हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा के बेटे दीपेंद्र सिंह हुड्डा, राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के बेटे दुष्यंत सिंह, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री हेमवंती नंदन बहुगुणा के बेटे और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी के भाई विजय बहुगुणा, राकांपा के अध्यक्ष शरद पवार की बेटी सुप्रिया सूले और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश यादव, चौधरी चरण सिंह के बेटे व रालोद अध्यक्ष अजीत सिंह के बेटे जयंत चौधरी सहित नवीन जिंदल, सचिन पायलट, जितिन प्रसाद, कुमारी शैलजा, अगाथा संगमा, मिलिंद देवड़ा, प्रिया दत्त, नीलेष राणे, समीर भुजबल, ज्योति मिर्धा, मनीश तिवारी, एचडी कुमार स्वामी और दीप गोगोई, सभी परिवादवाद से ही निकले हैं।
इन सब उदाहरणों को देख कर तो जगन मोहन का पारीवारिक विरासत का दावा गलत नजर नहीं आता, मगर कांग्रेस में तो केवल नेहरू-गांधी परिवार का एकाधिकार है, वहां किसी और को परिवारवाद के आधार पर कैसे पनपने दिया जा सकता है, वह भी मुख्यमंत्री जैसे पद पर। हालांकि यह सही है कि हैलिकॉप्टर दुर्घटना में जब वाई एस राजशेखर रेड्डी की मृत्यु हो गई थी तो 140 विधायकों ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाने का समर्थन किया था, लेकिन अब सिर्फ 20 से 25 विधायक उनके साथ बताए जाते हैं। चिरंजीवी की प्रजाराज्यम के समर्थन के कारण भले ही वे सरकार को गिराने में कामयाब न हो पाएं, कांग्रेस मतदाताओं का धु्रवीकरण में तो कामयाब हो ही जाएंगे।