शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

अधिकार दे कर फिर छीनने लगी है सरकार

महात्मा गांधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नाम की दुहाई दे कर सत्ता के विकेन्द्रीकरण और ग्राम स्वराज के नारे देने वाली प्रदेश की कांग्रेस सरकार दोहरी नीति पर चलती दिखाई दे रही है। एक ओर वह ग्राम पंचायतों को अधिकार देकर मजबूत करने की लफ्फाजी करती है तो दूसरी ओर धीरे से उनके अधिकार छीन रही है। बुधवार को प्रदेश सरकार के एक प्रमुख चालक व शिक्षा मंत्री मास्टर भंवरलाल अजमेर में शिक्षा विभाग की संभागीय बैठक में भाग लेने आए तो उन्होंने अधिकारियों को जो स्पष्ट निर्देश दिए, उससे तो साफ जाहिर है कि सरकार के दिखाने के दांत और हैं तो खाने के और।
मेघवाल ने अधिकारियों को उनके अधिकारों के प्रति उकसाते हुए साफ तौर पर कहा कि वे जनप्रतिधियों से घबराएं नहीं और केवल उन्हें बताए नियमानुसार ही काम करें। इसका मतलब साफ है कि मंत्री महोदय ने जो कहा है केवल उसे ही मानना है, जिला प्रमुख व प्रधान का नहीं। हद तो तब हो गई, जब उन्होंने उन्हीं की तरह जनता के वोटों से जीत कर आए जिला प्रमुखों व प्रधानों के बारे में कठोरता से कह दिया कि वे शहरी क्षेत्र की स्कूलों व अन्य हस्तांतरित विभागों में हस्तक्षेप नहीं कर पाएंगे। पंचायतीराज के जनप्रतिनिधि केवल गांवों में ही अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर सकते हैं, वह भी सरकार की ओर से तय सीमा तक। यानि ग्रामीण जनप्रतिधियों के अधिकारों को सीमित किया जा रहा है। अर्थात चलेगी तो केवल बड़ी सरकार की, गांवों की सरकारें केवल दिखाने के लिए बनाई गई हैं? तो फिर सवाल ये उठता है कि आखिर शिक्षा सहित अन्य विभाग पंचायतीराज को हस्तांतरित करने का ढिंढोरा पीटा ही क्यों था? यदि अधिकारियों के पास ही सारे अधिकार सुरक्षित हंै तो फिर चाहे अधिकार विभिन्न विभागों के प्रदेश प्रमुखों के पास हों या फिर पंचायतीराज के अधिकारियों के पास, क्या फर्क पड़ता है? अहम सवाल ये भी उठता है कि ग्रामीण जनप्रतिनिधियों को जनता ने चुन कर भेजा ही क्यों है, जब अधिकारी केवल सरकार के इशारे पर ही काम करेंगे? कहीं ऐसा तो नहीं कि जब सरकार ने गांवों की सरकार को मजबूत करने का निर्णय किया था तब उसे ख्याल में ही नहीं था कि ये सरकारें उसके अधिकारों में आड़े आएंगी? वरना अब जा कर इस प्रकार के निर्देश देने की जरूरत ही क्यों पड़ी है?
असल में शिक्षा मंत्री महोदय का यह रुख इस कारण बना दिखता है कि उन्होंनेे समायोजन के तहत जिन शिक्षकों को तबादला कर दिया था, उन पर जिला प्रमुखों व प्रधानों के दखल के कारण अमल नहीं हो पाया था। अजमेर में इसका प्रत्यक्ष उदाहरण सबके सामने है। जिला शिक्षा अधिकारी प्रारंभिक बिरदा सिंह रावत को केवल इसी कारण यहां से रुखसत होना पड़ा क्यों कि उन्होंने जिला प्रमुख के दबाव में सरकारी तबादला सूची को एक तरफ रख दिया था। शिक्षा मंत्री ने उन चालीस तबादलों पर रोक के आदेश को निरस्त करने को कहा। साथ ही यह भी कहा कि किसी के भी कहने पर गलत काम मत करो। शिक्षा मंत्री ने जिला परिषद की सीईओ शिल्पा से जवाब तलब के दौरान जो दिशा-निर्देश दिए, उससे तो यह साफ झलक रहा था कि वे जिला प्रमुख श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा के खिलाफ उन्हें उकसा रहे हैं। असल बात तो ये है कि शिल्पा ने बाकायदा अपना दु:खड़ा रोया था, जिस पर उन्होंने कहा कि वे तसल्ली रखें, सरकार जल्द ही नए दिशा-निर्देश जारी करके भेज रही है। शिल्पा ने पूछा था कि क्या सारी फाइलें जिला प्रमुख के पास भेजना जरूरी है तो शिक्षा मंत्री ने कहा कि इस बारे में तीन मंत्रियों की कमेटी के निर्देश आपके पास आ जाएंगे।
शिक्षा मंत्री ने यह भी कहा कि तबादलों पर पूर्ण प्रतिबंध है। परिषद व पंचायत समितियों में स्थापना समितियों ने यह काम शुरू कर दिया है। इस पर सीईओ को लगाम कसनी होगी। वे कंट्रोल अपने हाथ में लें। वे दबाव में नहीं आएं।
कुल मिला कर शिक्षा मंत्री महोदय ने साफ तौर पर ग्रामीण जनप्रतिनिधियों को धत्ता बताते हुए अधिकारियों को और अधिकार संपन्न कर दिया है। ऐसे में जनप्रतिनिधियों व अधिकारियों में टकराव और बढ़ेगा। जो अधिकारी मजबूत होगा वह तो सरकार की शह पर जनप्रतिनिधि से टकराव मोल ले लेगा और जो अधिकारी कमजोर होगा व जनप्रतिनिधि की मानेगा, सरकार उसकी खाल खींच लेगी। सरकार के इस रुख से तो यही प्रतीत होता है कि जिला परिषदों के जरिए तृतीय श्रेणी शिक्षकों की जो भर्ती होने वाली है, वह कहने भर तो जिला परिषदों के माध्यम से होगी, दखल पूरा राज्य सरकार का ही रहेगा।

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