रविवार, 30 जनवरी 2011

नियुक्ति का इंतजार करते-करते थके कांग्रेसी


सब्र टूटा, आखिर उठने लगे विरोध के स्वर
कांग्रेस के प्रदेश में सत्ता पर काबिज होने को दो साल बाद भी राजनीतिक नियुक्तियां न होने से कांग्रेसी नेताओं व कार्यकर्ताओं में घोर निराशा और मायूसी के बीच अब विरोध के स्वर भी मुखर होने लगे हैं। हालांकि राजनीतिक नियुक्तियां न होने की वजह से कार्यकर्ताओं के भीतर आक्रोश तो काफी समय से है, लेकिन उसे उजागर करने पर नुकसान होने के डर से सभी मन मसोस कर बैठे थे। अब जब कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डॉ. सी. पी. जोशी सहित प्रतापसिंह खाचरियावास व राजेन्द्र सिंह विधूड़ी ने धरातल के नीचे कार्यकर्ताओं में सुलग रही आग का खुलासा कर दिया है, विरोध के स्वर और तेज होने की आशंका है। ऐसे में सरकार बजट सत्र से पहले ही कुछ महत्वपूर्ण नियुक्तियां करने को मजबूर हो जाएगी।
ऐसा नहीं है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के राज में राजनीतिक नियुक्तियों पर चर्चा ही नहीं हुई। चर्चा तो खूब हुई है। केवल चर्चा ही नहीं, बल्कि कवायद भी पूरी हुई है। असल बात तो ये है कि जितने भी राजनीतिक पद हैं, उन सभी के दावेदारों की फाइलें तैयार हो गई हैं और मेरिट तक तय है। जैसे ही नियुक्तियां होने की चर्चा परवान चढ़ती है, कोई न कोई बाधा आ जाती है। इसका नतीजा यह होता है कि चर्चा हो कर ही रह जाती है। स्वयं मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी बीच-बीच में शगूफा छोड़ देते हैं कि नियुक्तियों की प्रक्रिया चल रही है। वे न बोलें तो तो मीडिया बुलवा देता कि अब तक तो अमुक कारण से नियुक्तियां नहीं हुई, अब तो हो ही जाएंगी। ऐसे करते-करते दो साल से ज्यादा समय बीत गया और कांग्रेसी गहलोत का मुंह ताकते ही रहे। विशेष रूप से वे जो विधानसभा, लोकसभा, स्थानीय निकाय व पंचायत चुनाव के दौरान टिकट से वंचित रह गए थे।
वस्तुत: जब विधानसभा चुनाव हुए तो जाहिर तौर सभी दावेदारों को तो टिकट देना संभव नहीं था, इस कारण जिन को टिकट नहीं दिया, उन्हें यह लॉलीपाप पकड़ा दी गई कि सरकार बनी तो आपका ध्यान रखा जाएगा। जो नेता बागी बन कर खड़े हो गए उन्हें भी समझा-बुझा कर बैठा दिया गया कि बाद में जरूर कोई न कोई लाभ का पद दे दिया जाएगा। यह की यह स्थिति अन्य चुनावों के दौरान हुई और टिकट से वंचित दावेदारों ने केवल इसलिए चुप्पी साध ली, क्योंकि उन्हें गहलोत से इनाम की आशा थी। ऐसा नहीं है कि अकेले टिकट से वंचित नेता ही नियुक्ति के इंतजार में हैं, कई विधायक भी मंत्रीमंडल विस्तार होने की बाट जोह रहे हैं। इस बार संयोग से कांगे्रस को निर्दलियों के सहयोग से सरकार बनानी पड़ी। बाद में विधानसभा में बहुमत के लिए बहुजन समाज पार्टी के सभी छहों विधायकों को भी कांग्रेस में शामिल कर लिया गया। ऐसे में सरकार की मदद करने वालों को तो तोहफा देना ही था। कुछ को पहले मंत्रीमंडल के गठन के वक्त दिया गया और कुछ को मंत्रीमंडल के विस्तार में खुश कर दिया गया। नतीजतन अनेक पात्र कांग्रेसी विधायकों को मन मसोस कर रह जाना पड़ा।
विधानसभा चुनाव के तुरंत बाद हुए लोकसभा चुनाव के कारण नियुक्तियों पर विचार नहीं किया गया और कांग्रेसी नेताओं को यह कह कर चुप किया गया कि वे फिलहाल चुप रहें, लोकसभा चुनाव में परफोरमेंस देखने के बाद उसी के आधार पर इनाम दिया जाएगा। लोकसभा चुनाव में जीत के लिए कई बागियों को भी पार्टी में वापस बुला लिया गया। अर्थात वे भी चुनाव के बाद राजनीतिक नियुक्तियों के हकदार हो गए। लेकिन इस बीच बजट सत्र सामने आ गया और सरकार उसमें व्यस्त हो गई। बजट सत्र सकुशल समाप्त हुआ ही कि बारिश की कमी से पड़े अकाल में महंगाई आसमान छूने लगी। कांग्रेस की सर्वेसर्वा सोनिया गांधी तक ने मितव्ययता बरतने की सीख दे दी। ऐसे में भला गहलोत किस मुंह से अकाल में नियुक्तियां कर सरकार पर बोझ डाल सकते थे। अभी वह दौर समाप्त हुआ ही नहीं कि प्रदेश के कई स्थानीय निकायों के चुनाव आ गए और गहलोत उसमें व्यस्त हो गए। आचार संहिता भी आड़े आ रही थी। इस चुनाव में मिली सफलता की खुमारी मिटी भी नहीं थी कुछ दिन बाद ही पंचायत चुनाव का दौर शुरू हो गया। उससे फुरसत मिली और विचार करने में थोड़ा वक्त गंवाया कि स्थानीय निकाय के चुनाव बाधा बन गए। इन चुनावों के बाद भी नियुक्तियां नहीं हुई तो यह आशा की गई कि कांग्रेस अधिवेशन के बाद कुछ होगा। सुना यह भी गया कि हाईकमान ने नियुक्तियों की हरी झंडी दे दी है, फिर भी कुछ नहीं हुआ तो आक्रोश फूट ही पड़ा। कार्यकर्ताओं को लग रहा है कि जल्द ही नियुक्तियां नहीं हुईं तो फिर बजट सत्र आ जाएगा। कांग्रेसी नेताओं व कार्यकर्ताओं में गहलोत की ब्यूरोक्रेसी पर निर्भरता को ले कर भी भारी पीड़ा है। उनका मानना है कि गहलोत की शह के कारण अफसरशाही कांग्रेसी नेताओं की परवाह ही नहीं करती। पिछले दिनों अजमेर नगर सुधार न्यास में न्यास सचिव अश्फाक हुसैन व पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल के बीच हुए टकराव को इसी संदर्भ में देखा जा सकता है। इसका परिणाम ये हुआ कि अपनी ही पार्टी की सरकार के होते हुए कांग्रेस के युवा कार्यकर्ताओं ने न्यास दफ्तर में जा कर हंगामा कर दिया।
बहरहाल, प्रदेश अध्यक्ष सहित अन्य के मुंह खोलने से अब सरकार पर भारी दबाव है और उम्मीद की जा रही है कि महत्वपूर्ण राज्य स्तरीय नियुक्तियां तो हो ही जाएंगी।

पत्रकार तेजवानी जिला स्तर पर सम्मानित


वरिष्ठ पत्रकार गिरधर तेजवानी को बुधवार, 26 जनवरी को पटेल मैदान में आयोजित जिला स्तरीय गणतंत्र दिवस समारोह में राज्य की पर्यटन मंत्री श्रीमती बीना काक ने सम्मानित किया। उन्हें यह सम्मान अजमेर के इतिहास, वर्तमान व भविष्य पर लिखित शोध परक पुस्तक अजमेर एट ए ग्लांस को उनकी उपलब्धि और अजमेर के लिए किए गए उल्लेखनीय योगदान के रूप में मानते हुए दिया गया है।
तेजवानी लम्बे अरसे से पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं और उन्होंने दैनिक भास्कर सहित अनेक समाचार पत्रों में संपादन का काम किया है और अब भी संपादन व लेखन का कार्य जारी रखे हुए हैं। हाल ही उन्होंने अजमेर एट ए ग्लांस नामक पुस्तक का लेखन किया है, जिसे अगर अजमेर के इतिहास में मील का पत्थर कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। वस्तुत: प्रख्यात इतिहासकार कर्नल टॉड व हरविलास शारदा की अजमेर के इतिहास पर लिखित पुस्तकों के बाद अजमेर एट ए ग्लांस एक ऐसी पुस्तक है, जिसमें न केवल अजमेर का इतिहास, अपितु वर्तमान संदर्भों का विस्तृत वर्णन है।
असल में अजमेर में अरसे से एक ऐसी पुस्तक की जरूरत महसूस की जा रही थी, जिसमें न केवल जिले की समग्र महत्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारियां हों, अपितु नवीनतन सूचनाओं के साथ पूरे राजनीतिक, प्रशासनिक व सामाजिक ढ़ांचे के तथ्य संग्रहित हों। पुस्तक के अंतर्गत जिले की ऐतिहासिक व पुरातात्विक पृष्ठभूमि, उठापटक भरे इतिहास की गवाह तिथियां, वैभवशाली संस्कृति, समस्त पर्यटन स्थल, आजादी के आंदोलन में अजमेर की भूमिका, सांस्कृतिक, सामाजिक व राजनीतिक स्थिति के महत्वपूर्ण तथ्यों के अतिरिक्त महत्वपूर्ण सरकारी विभागों, गैर सरकारी संगठनों, स्वयंसेवी संस्थाओं और राजनीतिक, धार्मिक व सामाजिक शख्सियतों के बारे में जानकारी दी गई है। इतना ही नहीं अजमेर के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि एक पुस्तक का विमोचन समारोह अजमेर की बहबूदी पर चिंतन का यज्ञ बन गया, जिसमें अपनी आहूति देने को भिन्न राजनीतिक विचारधारों के दिग्गज प्रतिनिधि एक मंच पर आ गए। यह न केवल राजनीतिकों, बुद्धिजीवियों, समाजसेवियों व गणमान्य नागरिकों एक संगम बना, अपितु अजमेर के विकास के लिए समवेत स्वरों में प्रतिबद्धता भी जाहिर की गई। पहली बार एक ही मंच पर अजमेर में कांग्रेस के दिग्गज केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट व दिग्गज भाजपा नेता पूर्व सांसद औंकारसिंह लखावत, प्रो. रासासिंह रावत, पूर्व उप मंत्री ललित भाटी और नगर निगम महापौर कमल बाकोलिया एकत्रित हुए और इस पुस्तक को अत्यंत उपयोगी व स्वर्णाक्षरों में लिखा जाने वाला प्रयास बताया। वस्तुत: यह पुस्तक इतिहास के शोधार्थियों, स्कूल के विद्यार्थियों, आम नागरिकों और पर्यटकों के लिए बेहद उपयोगी है।

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

उमर गलत तो भाजपा भी कहां सही है

इन दिनों श्रीनगर के लालचौक पर भाजयुमो की ओर से 26 जनवरी को तिरंगा झंडा फहराने के ऐलान को लेकर राजनीति अपने पूरे उबाल पर है। एक ओर जहां भाजयुमो व भाजपा ने इसे राष्ट्रवाद से जोड़ कर प्रतिष्ठा व राष्ट्रीय अस्मिता का सवाल बना रखा है, वहीं जम्मू-कश्मीर सरकार ने भाजयुमो कार्यकर्ताओं को रोकने के लिए राज्य की सीमाएं सील कर दी हैं। इस बीच प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के इस बयान से कि गणतंत्र दिवस जैसे मौके पर पार्टियों को विभाजनकारी एजेंडे को बढ़ावा नहीं देना चाहिए और उन्हें राजनीतिक फायदा उठाने से बचना चाहिए, को लेकर भाजपा उबल पड़ी है।
यह सही है कि भारत में कोई भी कहीं पर भी तिरंगा फहराने के लिए स्वतंत्र है और इसके लिए उसे किसी की इजाजत लेने की जरूरत नहीं है। तिरंगा फहराना हमारा हक है और राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक भी। भारतीय जनता पार्टी की यह दलील वाकई पूरी तरह जायज है, लेकिन इसे जिन हालात में ऐसा करने की जिद है, वह समस्या के समाधान की बजाय उसे उलझाने वाली ज्यादा है।
जहां तक जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की भूमिका का सवाल है, उनका यह कहना कि लालचौक पर तिरंगा फहराने से दंगा हो जाएगा और उसके लिए भाजपा जिम्मेवार होगी, बेशक उग्रवादियों के आगे घुटने टेकने वाला है। यह साफ है कि सरकार का हालात पर कोई नियंत्रण नहीं है। भले ही उन्होंने कानून-व्यवस्था के लिहाज से ऐसा वक्तत्व दिया था, मगर ऐसा कहने से जाहिर तौर पर भाजपाई और उग्र हो गए। वे अगर ये कहते कि तिरंगा फहराना गलत नहीं, वे भी यह चाहते हैं कि कोई भी तिरंगा फहराये, किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए, मगर चूंकि अभी हालात ठीक नहीं हैं, इस कारण अभी भाजपाइयों को संयम बरतना चाहिए तो कदाचित भाजपा को अपनी राजनीतिक मुहिम के प्रति जनसमर्थन बनाने का मौका नहीं मिलता। भाजपा को यह मुद्दा बनाने का मौका उमर के बयान से अधिक उस बयान से भी मिला, जो कि आतंकियों ने चुनौती के रूप में दिया था। उस चुनौती को किसी भी रूप में बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। ऐसे में राष्ट्रीय एकता व अस्मिता के लिहाज से भाजपा का रुख निस्संदेह पूरी तरह से सही है और उसमें लेश मात्र भी संदेह नहीं है।
मगर... मगर इन सब के बावजूद यदि हम सिक्के का दूसरा पहलू नजरअंदाज करेंगे तो यह सब कुछ समझने के बावजूद नासमझ बनने का नाटक ही कहलाएगा। असल में जम्मू-कश्मीर की समस्या आज अचानक पैदा नहीं हुई है। यह विभाजन के साथ ही पैदा हुई और जाहिर तौर पर इसके लिए तत्कालीन हालात और जाहिर तौर पर आजादी में अग्रणी भूमिका अदा करने वाली कांग्रेस जिम्मेदार है। वस्तुत: यह केवल राष्ट्रीय समस्या नहीं, बल्कि इसकी गुत्थी अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में उलझी हुई है। इसका समाधान स्वयं भाजपानीत सरकार भी नहीं निकाल पाई थी। जब तक भाजपा विपक्ष रही तब तो उसे केवल देश और देश के अंदर के हालात का पता था, मगर जब उसे सत्ता में आने का मौका मिला तो उसे भी पूरी दुनिया नजर आने लगी। उसे भी समझ में आने लगा कि अंतर्राष्ट्रीय कारणों से उलझी राष्ट्रीय समस्याएं सुलझाने में कितने अंतर्राष्ट्रीय दबाव झेलने पड़ते हैं। इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण ये है कि भाजपा सरकार को विमान के हाईजैक होने पर भारतीय यात्रियों को बचाने की खातिर आतंकवादियों को छोडऩे के लिए मौके पर जाना पड़ा था। सत्ता में रह चुकी भाजपा को यह भी अहसास होगा कि अरसे तक आग में धधक रहे जम्मू-कश्मीर में अब जा कर स्थिति थोड़ी संभली है। यदि यह सच है कि जम्मू-कश्मीर भारत का अंग है तो यह भी उतना ही कठोर सच है कि वहां के हालात राष्ट्रवाद के नाम पर भावनाएं भुना कर छेडख़ानी करने के नहीं हैं। अव्वल तो भाजपा को जम्मू कश्मीर में राज करने का मौका मिलना नहीं है, गर मिल भी जाए तो उसे भी पता लग जाएगा कि जितनी आसानी से वे लाल चौक पर तिरंगा फहराने की बात करते हैं, उतना आसान काम है नहीं। और उससे भी बड़ी बात ये कि वे तो राष्ट्रीय अस्मिता के नाम पर एक दिन के लिए वहां झंडा फहरा कर दिल की आग शांत कर आएंगे, बाकी के तीन सौ चौंसठ दिन की आग तो वहां के लोगों को झेलनी होगी।
असल में जम्मू-कश्मीर में पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी का खैरियत से गुजर जाना पिछले दो दशकों से राष्ट्रीय चिंता का विषय रहता है। अलगाववादियों के जुलूसों पर फायरिंग के चलते पिछले कुछ महीनों के दौरान ठंडे कश्मीर में आग धधक-धधक कर जलती रही है। हिंसा का वह दौर, जिसने करीब-करीब मुख्यमंत्री उमर अब्दु्ल्ला की कुर्सी ले ही ली थी, बड़ी मुश्किल से शांत हुआ है। हाल में उस राज्य में कुछ सकारात्मक संकेत नजर आए हैं। अमन की दिशा में लोगों ने एक बड़ा कदम उठाया है। नेशनल कांफ्रेंस और मुफ्ती सईद की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के बीच लंबे अरसे बाद संवाद फिर शुरू होने जा रहा है। अब्दुल गनी भट और सज्जाद लोन जैसे अलगाववादी नेताओं ने आतंकवादी हिंसा पर कुछ जोखिम भरे वक्तव्य दिए हैं। हिंसा के लंबे दौर के बाद सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल और केंद्र सरकार के वार्ताकारों के प्रयासों से जम्मू कश्मीर के हालात कुछ सामान्य हुए हैं। एक बार बमुश्किल कुर्सी बचाने में सफल रहे उमर अब्दुल्ला भी शायद अब किसी किस्म का जोखिम उठाने के लिए तैयार नहीं हैं। वस्तुत: तिरंगा झंडा न फहराने देने को जहां भाजपा सहित हर भारतीय देश विरोधी समझता है, वहीं जम्मू-कश्मीर सरकार की नजर में फिलहाल वह देश हित में है। भाजपा राष्ट्रीय स्वाभिमान और अस्मिता का सवाल बना रही है, मगर उमर की नजर में मौजूदा हालात में कानून-व्यवस्था बनाए रखना ज्यादा प्रासंगिक है। मौजूदा हालात में प्रत्क्षत: भले ही भाजपा इसे राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की कोशिश कर रही हो, मगर उसके पीछे छिपा राजनीतिक एजेंडा भी किसी वे छिपा नहीं है। हालांकि मुद्दा आधारित राजनीति में माहिर भाजपाइयों को यह बात गले नहीं उतरेगी और वे अपनी जिद पर अड़े रहेंगे, मगर देशप्रेम के नाम पर यह यात्रा निकालने से कोई बड़ा देश हित सिद्ध होने वाला नहीं है। अव्वल तो उमर भाजपाइयों को घुसने नहीं देंगे। गर घुस भी गए तो तिरंगा भारी भरकम सुरक्षा इंतजामों में ही फहराया जा सकेगा। इससेे तस्वीर चाहे बदले न बदले, हंगामा करने का मकसद तो पूरा हो ही जाएगा। और उस हंगामे को तो वहां की सरकार को ही भुगतना होगा।

सोमवार, 24 जनवरी 2011

शराब की लत तो वसुंधरा ने ही लगाई थी

जोधपुर व पाली में हाल ही जहरीली शराब से कई लोगों की मौत नि:संदेह दुखद है और शासन-प्रशासन की ढि़लाई और पुलिस व आबकारी विभाग की मिलीभगत का परिणाम है, मगर इस मुद्दे पर पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे किस मुंह से सरकार पर जम कर बरस रही हैं, यह सवाल हर एक की जुबान पर है। इसकी एक मात्र वजह ये है कि राजे के राज में ही शराब की नदियां बहाई गई थीं। शराब को सहज सुलभ करवा कर लोगों को शराब का आदी उन्होंने ही बनाया था।
यह एक सर्वविदित तथ्य है कि अशोक गहलोत पर खजाना खाली होने पर रोने का उलाहना देने वाली श्रीमती राजे ने ही सरकार का खजाना बढ़ाने के लिए गली-गली में शराब की दुकानें खुलवा दी थीं। तुर्रा ये कि खजाना खाली होने का रोना रोने की बजाय खजाना भरने का तरीका आना चाहिए। तब ये जुमला आम था कि बच्चे के रोने पर डेयरी बूथ पर दूध भले ही पीने को न मिले, मगर गम गलत करने के लिए आदमी को शराब हर गली के नुक्कड़ पर सहज सुलभ है। इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली बात ये है कि उन्हीं के राज में यह आदेश जारी हुआ था कि शराब की दुकानों के आसपास पुलिस वाले न फटकें, क्योंकि इससे शराब का धंधा खराब होता है। तर्क ये दिया गया कि लोग पुलिस के डर से शराब की दुकान पर चढऩे से कतराते हैं। इससे राजस्व में कमी आती है। इस सर्कूलर का परिणाम ये हुआ कि लोग शराब की दुकानों के पास ही बैठ कर बेधडक़ मदहोश होते थे और पुलिस उनका मुंह ताकती रहती थी।
तब खुद को सबसे ज्यादा सच्चरित्र और राष्ट्रवादी बताने वाले भाजपाइयों की बोलती बंद थी। जब भी शराब की दुकानों के सिलसिले में बात चलती थी तो भाजपाई इधर-उधर बगलें झांकते थे। किसी संभ्रांत महिला के बारे में इस तरह की टिप्पणी भले ही अशोभनीय लगे, मगर खुद वसुंधरा राजे तक के बारे में एट पीम नो सीएम कह कर परिहास किया जाता था। यह जुमला भले ही कांग्रेस की ओर से उछाला गया, मगर इसे सुन कर भाजपाई भी मंद-मंद मुस्कराते थे।
तब कांग्रेस बहुत चिल्लाई, मगर राजे ने उसकी एक नहीं सुनी। आज राजे यह कह कर गहलोत सरकार की आलोचना कर रही है कि गली-गली में बीयर बार खुल गए हैं, तो क्या यह सच नहीं है कि उनके राज में गली-गली में शराब के ठेके दे दिए गए थे? आज श्रीमती राजे यह कह कर मौजूदा सरकार की खिंचाई कर रही हैं कि शराब की दुकानें तो आठ बजे बंद करवा दीं, मगर बीयर बार आधी रात तक खोलने की छूट दी हुई है। यानि कि वे यह कहना चाहती हैं कि बीयर बार भी आठ बजे ही बंद कर दी जानी चाहिए। ऐसा कह कर वे शराब की दुकानें जल्द बंद करने के निर्णय का समर्थन कर रही हैं। इसमें कोई दोराय नहीं कि अशोक गहलोत ने आते ही सबसे पहले शराब की दुकानें रात आठ बजे बंद करने का जो कठोर कदम उठाया और शराब पी कर वाहन चलाने वालों पर जो सख्ती बरती, उसकी सराहना हर एक की जुबान पर है। विशेष रूप से महिलाओं को तो बेहद खुशी है कि रात आठ बजे शराब की दुकानें बंद होने से उन्हें काफी राहत मिली है।
रहा सवाल अवैध और जहरीली शराब का तो वह राजे के राज में भी धड़ल्ले से बिकती थी और आज भी बिक रही है। तब न राजे उस पर अंकुश लगा पाई थीं और न ही आज गहलोत सरकार कुछ कर पा रही है। शराब की तस्करी पहले भी होती थी और आज भी हो रही है। कुछ विशेष मोहल्लों में शराब पहले भी बनती थी और थडिय़ों पर बिकती थी और आज भी वैसा ही है। इसके ये मायने नहीं है कि चूंकि राजे के राज में शराब की नदियां बहती थीं तो आज भी उसके समंदर होने चाहिए, मगर कम से कम राजे को तो आलोचना का अधिकार नहीं दिया जा सकता, जिन्होंने खुद लोगों को शराब पीने का आदी बनाया।

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

आयोग ने निकाल दी सवर्णों के हंगामे की हवा

हाल ही अन्य पिछड़ा वर्ग के सर्वे फार्म को लेकर जो बवाल खड़ा हुआ था, राजस्थान राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग ने उसकी हवा पूरी तरह से निकाल दी है। आयोग ने साफ कर दिया है कि उसकी ओर से सवर्ण जातियों के संदर्भ में कोई सर्वे किया ही नहीं जा रहा, तो ऐसे काल्पनिक सर्वे पर हंगामे का औचित्य ही क्या है। आयोग ने इस सिलसिले में बाकायदा एक प्रेस रिलीज जारी किया है, मगर अफसोसनाक पहलू ये है कि सर्वे में पूछे गए सवालों को घटिया बता कर सवर्णों को भडक़ाने वाले और बाद में सवर्णों के भडक़ जाने पर उसकी खबरें सुर्खियों में छापने वाले मीडिया ने उसे प्रकाशित ही नहीं किया। यदि किसी अखबार ने प्रकाशित भी किया होगा तो किसी कोने-खोचरे में दिया होगा, ताकि वह नजर में ही नहीं आए।
आयोग ने जो प्रेस रिलीज जारी किया है, उसमें साफ तौर पर कहा गया है कि सवर्णों के बारे में इस प्रकार का सर्वे उसके क्षेत्राधिकार में ही नहीं आता है, अपितु उसके लिए अलग से आर्थिक पिछड़ा वर्ग आयोग है। आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति पी. के. तिवारी का कहना है कि जो सर्वे फार्म जिला कलेक्टरों को भेजा गया है, उसका सवर्ण जातियों से तो कोई संबंध ही नहीं है।
ऐसा लगता है कि जो सर्वे फार्म एक अखबार में छपा, वह प्रताप फाउंडेशन के प्रवक्ता महावीर सिंह की ओर से ही उपलब्ध करवाया गया होगा, जिसके बारे में संबंधित रिपोर्टर ने पूरी छानबीन की ही नहीं और बाईलाइन फ्रंट पर छपने के चक्कर में जल्दबाजी में सवर्णों को भडक़ाने का काम कर दिया। खबर छपने के बाद जाहिर तौर पर सवर्ण भडक़े भी और उन्होंने बाकायदा आयोग के दफ्तर पर हंगामा भी किया। आखिरकार आयोग के अध्यक्ष को स्थिति स्पष्ट करनी पड़ी। अहम सवाल ये भी है कि जो सर्वे फार्म जिला कलेक्टरों को भेजा गया है, वह महावीर सिंह के हाथ आया कहां से? यदि आ भी गया तो उन्होंने यह कह कर गुमराह कैसे किया कि वह ब्राह्मण, वैश्य व राजपूत वर्ग से संबंधित है? लगता है कि उन्हें भी नेतागिरी करने की जल्दी थी कि कहीं किसी और नेता के हाथ वह सर्वे फार्म आ जाएगा तो हंगामे का श्रीगणेश करने का श्रेय ले जाएगा।
उल्लेखनीय है कि कथित रूप से ब्राह्मण, राजपूत व वैश्य वर्ग में आर्थिक रूप से पिछड़ों का पता लगाने के लिए भेजे गए सर्वे फार्म में पूछे गए सवालों को ही पिछड़ा करार देते हुए आपत्ति दर्ज कराई गई थी कि वे अपमानजनक हैं। प्रताप फाउंडेशन के प्रवक्ता महावीर सिंह ने तो बाकायदा यह तक आरोप लगाया कि ऐसे सवाल पूछ कर सरकार गरीब राजपूतों को आरक्षण का लाभ देने से वंचित करना चाहती है। इसी प्रकार एक समाजशास्त्री प्रो. राजीव गुप्ता ने अपनी विद्वता का परिचय देते हुए कहा था कि सरकार भले ही किसी को उसका अधिकार दे या न दे, मगर उसके सम्मान व स्वाभिमान के साथ खिलवाड़ न करे। दूसरी ओर राज्य पिछड़ा आयोग के सदस्य सचिव ए. के. हेमकार का कहना था कि सर्वे फार्म के सवाल आपत्तिजनक नहीं हैं और ओबीसी में शामिल किए जाने के मापदंड हैं, जो कि पहले से ही निर्धारित हैं। मगर दुर्भाग्य से उन्होंने तब ही यह स्पष्ट नहीं किया कि जिस सर्वे फार्म को लेकर आपत्ति की जा रही है, उसका सवर्णों से कोई ताल्लुक ही नहीं है और इसी कारण विवाद को बढऩे को जगह मिल गई।

पहले सरकारी डॉक्टरों से तो जेनेरिक दवाई लिखवा लीजिए !

नागौर में बेहतरीन जिला कलेक्टर के रूप में ख्याति अर्जित करने के बाद हाल ही राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के निदेशक बने डॉ. समित शर्मा ने ऐलान किया है कि सरकारी के साथ-साथ निजी अस्पतालों के चिकित्सकों को भी जेनेरिक दवाई लिखने को बाध्य किया जाएगा। कहने को तो यह बयान बड़ा सुकून देता है, मगर ऐसा लगता है कि शर्मा जी को जमीनी हकीकत ही पता नहीं है। हालत ये है कि आज भी सरकारी डाक्टरों को जेनेरिक दवाई लिखने में जोर आता है। सरकार और निदेशालय उन्हीं पर सख्ती नहीं आजमा पाए हैं।
अपने एक बयान में खुद शर्मा जी ने माना है कि जेनेरिक दवाइयों के खिलाफ माहौल बनाने में चिकित्सा जगत से जुड़े लोगों ने ही अहम भूमिका अदा की है। उसमें अगर यह जोड़ दिया जाए कि सत्ता के दलालों की ताकत बिना ऐसे लोग भूमिका अदा ही नहीं कर सकते तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। इसकी वजह साफ है कि ब्रांडेड दवाइयां लिखने पर बतौर कमीशन डॉक्टरों तक हिस्सा पहुंचता है। ऐसे में वे भला जेनेरिक दवाई क्यों लिखेंगे। और सरकारी तनख्वाह के अतिरिक्त कमीशन से मिलने वाली राशि से ही डॉक्टर मनपसंद की जगहों पर तैनात होते हैं, यह बात किसी से छिपी नहीं है। हालांकि कहने को सरकार बार-बार डॉक्टरों पर जेनेरिक दवाई लिखने का दबाव बना रही है, लेकिन वस्तुस्थिति ये है कि उसे अभी पूरी कामयाबी नहीं मिली है। मेडिकल माफिया का एक बड़ा समूह सरकारी आदेशों की धज्जियां उड़ा रहा है। सख्ती का आलम ये है कि किसी भी डॉक्टर के खिलाफ कोई सख्त कार्यवाही नहीं की जा सकी है। असल बात तो ये है कि वह डॉक्टरों की कमी से ही जूझ रही है। ऐसे में भला वह सख्त कदम कैसे उठा सकती है।
यदि यह मान भी लिया जाए कि वह डॉक्टरों से जेनेरिक दवाई लिखवाने में कामयाब हो गई है तो भी नतीजा ढ़ाक के तीन पात है। मार्केट में जेनेरिक दवाई पूरी तरह से उपलब्ध ही नहीं है। मरीज चाह कर भी जेनेरिक दवाई से वंचित है। उसे कई दुकानों के धक्के खाने पड़ते हैं। उतनी मशक्कत करने को कोई तैयार ही नहीं है। आम मरीज को तो पता ही नहीं है कि ये जेनेरिक दवाई होती क्या है। इससे भी बड़ी सच्चाई ये है कि खुद पढ़े-लिखे मरीज में ही जेनेरिक दवाई के प्रति विश्वास नहीं है। वह खुद ही ब्रांडेड दवाई ले कर जल्द से जल्द ठीक होना चाहता है। इस कारण पर्ची पर जेनेरिक दवाई लिखी भी हो तो वह मेडिकल स्टोर से मांग करता है कि जेनेरिक दवाइयों के कॉम्बीनेशन वाली किसी ब्रांडेड कंपनी की दवाई दे दे। इस जमीनी हकीकत के बाद भी शर्माजी अगर ये भभकी देते हैं कि अब प्राइवेट डाक्टरों को भी जेनेरिक दवाई लिखने के लिए बाध्य किया जाएगा, महज कल्पना ही दिखाई देती है।
शर्मा जी का एक तर्क यह है कि जेनेरिक दवाई पूरी तरह से असरकारक होती है। इसका कोई ठोस आधार नहीं है। हालांकि यह सही है कि मेडिकल माफिया जेनेरिक दवाई को घटिया बता कर माहौल खराब कर रहा है, लेकिन इस सच्चाई से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि जेनेरिक दवाई कम असरकारक ही पाई गई है। इसकी वजह ये है कि जो कंपनियां जेनेरिक दवाई बना रही हैं, वे आलू-चालू सी मानी जाती हैं। उनके पास दवाई बनाने के अत्याधुनिक संसाधन ही नहीं हैं। ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे कि जेनेरिक दवाई से तो मरीज ठीक नहीं हुआ और ब्रांडेड कंपनी की दवाई से ठीक हो गया। शर्मा जी का यह तर्क खूबसूरत तो है कि सस्ती होने के कारण जेनेरिक दवाई की गुणवत्ता में कमी नहीं आती, मगर ऐसा कहने का आधार कुछ भी नहीं है। माना कि जेनेरिक दवाई के साथ कमीशन का चक्कर नहीं है और उसके विज्ञापन आदि पर भी खर्च नहीं होता, मगर वह गुणवत्ता के लिहाज से अच्छी ही होती है, इसकी क्या गारंटी है? जब तक सरकार इस बारे में कोई पुख्ता इंतजाम नहीं करेगी और आम जनता में विश्वास कायम नहीं करेगी, जेनेरिक दवाइयों के बारे में दी जा रही तमाम दलीलें काम नहीं आने वाली हैं।

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

जिस दर पर है बम फोडऩे का इल्जाम, उसी दर से है बरी होने की ख्वाहिश

दरगाह ख्वाजा साहब का दर भी कितना कमाल का दर है, जिस दर पर बम फोडऩे का इल्जाम है आरएसएस नेता इन्द्रेश कुमार पर, उसी दर से इल्तजा है बरी होने की। फौरी तौर पर भले ही यह लगता हो कि इन्द्रेश कुमार की सलामती की दुआ तो छत्तीसगढ़ हज कमेटी व मदरसा बोर्ड के सदर सलीम रजा ने मांगी है, मगर क्या इस बात पर यकीन किया जा सकता है इन्द्रेश कुमार को बताए बिना ही वे यहां दुआ मांगने आ गए होंगे। गर आए भी हैं तो क्या ये कम बात है कि उसी दर से उनके सलामत होने की उम्मीद की जा रही है, जिसे सलामत न रहने देने के लिए बम ब्लास्ट करने की कोशिश का उन पर इल्जाम लगा हुआ है। और अगर दुआ कबूल हो गई तो वाकई ये कमाल हो जाएगा। असल में ख्वाजा साहब की बारगाह के बारे में ऐसा यकीन है कि यहां अकीदत और शिद्दत से की गई हर दुआ कुबूल होती है। फिर भले ही वो इसी मुकाम पर बम फोडऩे के इल्जाम में क्यों न फंसा हो।
ये तो हुई रूहानी बात, मगर सलीम राज ने जिस मकसद से आस्ताना शरीफ पर चादर चढ़ाई है, उसके तौर-तरीके के पीछे क्या राज छिपा है, इसको लेकर कई तरह की सवाली अबाबीलें उडऩे लगी हैं। अव्वल तो ये नौटंकी नजर आती है। गर इन्द्रेश कुमार की सलामती की खातिर दुआ मांगने ही आए थे तो सिर्फ ख्वाजा साहब के सामने ही तो सवाल करना था, उसे सबके सामने इजहार करके सवाल क्यों खड़े कर गए? ये तो वो ही हुआ न कि तस्वीर बदले न बदले, हंगामा जरूर खड़ा होना चाहिए। क्या इससे ये शक नहीं होता कि राज को इन्द्रेश कुमार ने ही भेजा होगा, ताकि पूरे मुल्क में यह संदेश जाए कि मुस्लिमों को भी यकीन नहीं कि वे दरगाह में बम फोडऩे की हरकत करवा सकते हैं और उन पर लग रहा इल्जाम कुछ फीका पड़ जाए? या फिर राज ने यह सब महज दोस्ती की खातिर ही किया है? दुआ मंजूर हुई तो भले ही इन्द्रेश कुमार बरी हो जाएं, मगर राज की इस तरह की सियासी ख्वाहिश से खैरियत से बैठे चंद मुस्लिम नेता तो सवालों की गिरफ्त में आ ही गए हैं।
अव्वल तो जियारत करवाने वाले खादिम व कांग्रेस नेता शेखजादा जुल्फिकार चिश्ती की ही बोलती बंद है। उन्हें यह कह कर बचना पड़ रहा है कि उन्हें तो पता ही नहीं था कि सलीम राज इन्द्रेश कुमार की ओर से चादर पेश करने आए थे। उनकी बात पर यकीन हो भी जाए, मगर राज के साथ आए राजस्थान वक्फ बोर्ड के साबिक सदर व भाजपा नेता सलावत खां और कांग्रेस अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के प्रदेश महामंत्री नईम खान तो ये कहने की हालत में भी नहीं हैं कि उन्हें क्या पता कि वे इन्द्रेश कुमार की सलामती के लिए चादर चढ़ाने आए हैं। और तो और जयपुर बैठे प्रदेश कांग्रेस के महामंत्री मुमताज मसीह तक संदेह के दायरे में आ गए हैं कि उन्होंने राज को शानदार तरीके से जियारत करवाने के लिए सिफारिश करते हुए नईम खान को क्यों भेजा? क्या वे ये नहीं जानते थे कि सलीम राज किस मकसद से अजमेर शरीफ जा रहे हैं? और अगर वाकई इन सभी को धोखे में रख कर सलीम ने यहां चादर चढ़ाई है तो उनसे बड़ा सियासतदान मिलना मुश्किल है। वाकई वे दाद के काबिल हैं। ढ़ेर सारे सवाल खड़े कर जाने वाले ऐसे गुरू घंटाल से सिर्फ एक ही सवाल-उन्होंने अपने मकसद का खुलासा जियारत करने बाद क्यों किया? सवाल और भी मगर उसका जवाब वे खुद ही दे गए हैं, और वो ये कि अगर वे जोर दे कर कह रहे हैं कि इन्द्रेश कुमार संघ से जुड़े होते हुए भी हिंदू-मुस्लिम एकता का हिमायती हैं, माने.......माने, ऐसा कह कर उन्होंने जाने-अनजाने संघ के और नेताओं को तो हिंदू-मुस्लिम एकता के खिलाफ ठहरा ही दिया है।

शनिवार, 15 जनवरी 2011

सवाल पूछे बिना भला कैसे पता लगेगा कि कौन पिछड़ा है?

हाल ही अन्य पिछड़ा वर्ग के सर्वे फार्म को लेकर विवाद खड़ा हो गया है। ब्राह्मण, राजपूत व वैश्य वर्ग में आर्थिक रूप से पिछड़ों का पता लगाने के लिए भेजे गए सर्वे फार्म में पूछे गए सवालों को ही पिछड़ा करार देते हुए आपत्ति दर्ज कराई गई है कि वे अपमानजनक हैं। प्रताप फाउंडेशन के प्रवक्ता महावीर सिंह ने तो यह तक आरोप लगाया है कि ऐसे सवाल पूछ कर सरकार गरीब राजपूतों को आरक्षण का लाभ देने से वंचित करना चाहती है। इसी प्रकार एक समाजशास्त्री प्रो. राजीव गुप्ता ने अपनी विद्वता का परिचय देते हुए कहा है कि सरकार भले ही किसी को उसका अधिकार दे या न दे, मगर उसके सम्मान व स्वाभिमान के साथ खिलवाड़ न करे। दूसरी ओर राज्य पिछड़ा आयोग के सदस्य सचिव ए. के. हेमकार का कहना है कि सर्वे फार्म के सवाल आपत्तिजनक नहीं हैं और ओबीसी में शामिल किए जाने के मापदंड हैं, जो कि पहले से ही निर्धारित हैं।
सर्वप्रथम अगर हेमकार के तर्क को आधार मानें तो जब यह स्पष्ट ही है कि अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल करने का मापदंड ही वह सर्वे फार्म है तो उस पर किसी को आपत्ति करने का अधिकार ही नहीं बनता। जब पूर्व में उसी आधार पर ही कुछ जातियों को अन्य पिछड़ा वर्ग का लाभ दिया गया है, तो इस वर्ग में शामिल करने के लिए ब्राह्मण, राजपूत व वैश्य के लिए अलग तरह का सर्वे फार्म कैसे बनाया जा सकता है? उनके लिए अलग मापदंड कैसे बनाए जा सकते हैं? अगर उन्हें इस वर्ग का लाभ हासिल करना है तो इस सर्वे फार्म से तो गुजरना ही होगा। रहा सवाल गरीब राजपूतों अथवा गरीब ब्राह्मण-बनियों को आरक्षण से वंचित करने का तो इसमें दो बिंदू विचारणीय लगते हैं। एक तो यदि राजपूत जाति का कोई व्यक्ति गरीब है तो उसे अन्य गरीबों की तरह बीपीएल के तहत लाभ मिल सकता है। उसके लिए अलग से आरक्षण की जरूरत ही क्या है। और यदि पूरे समूह को ही आर्थिक रूप से पिछड़ा होने के नाते अन्य पिछड़ा वर्ग का लाभ हासिल करना है तो जाहिर तौर पर उनके पिछड़ेपन की मूल वजह के आधार पर ही तय किया जाएगा कि वे पिछड़ हुए हैं। सर्वे फार्म में जो मापदंड दिए गए हैं, भले ही वे कहने और बताने में अपमानजनक लगें, मगर असल में उन्हीं मापदंडों से ही तो पता लगता है कि अमुक जाति वर्ग पिछड़ा हुआ है। जैसे सर्वे फार्म के कुछ सवाल, जिन पर आपत्ति की जा रही है, उनमें पूछा गया है कि क्या उस जाति वर्ग को अन्य जातियां नीच व शूद्र समझती हैं, क्या इस जाति वर्ग को आपराधिक प्रवृत्ति का माना जाता है, क्या इस जाति वर्ग के लोग जीविकोपार्जन के लिए भिक्षा वृत्ति, पूजा-पाठ, संगीत, व नृत्य पर निर्भर हैं? ये सारे वे सवाल हैं, जो इस बात का उत्तर देने के लिए पर्याप्त हैं कि कोई जाति वर्ग उन कथित अपमानजनक कारणों से आर्थिक रूप से पिछड़ा रहा या फिर उसके पिछडऩे की वजह वे कारण रहे। कैसी विडंबना है कि एक ओर तो आर्थिक रूप से पिछड़े होने के नाते अन्य पिछड़ा वर्ग का लाभ लेना भी चाहते हैं, मगर सर्वे फार्म में दिए गए सवालों की परिभाषा में आना भी नहीं चाहते। असल बात है ही ये कि कोई जाति सम्मानजनक स्थिति में हो ही तभी सकती है, जबकि वह शुरू से आर्थिक रूप से संपन्न रही हो। यदि अपमानजनक स्थिति में रही है तो उसके लिए भले ही समाज के संपन्न और उच्च जातियों के लोग जिम्मेदार रहे हों, मगर इसे तो स्वीकार करना ही होगा न कि वे अपमानजनक कारणों की वजह से आर्थिक रूप से पिछड़ गए थे। क्या यह सही नहीं है कि कोई जाति वर्ग आर्थिक रूप से पिछड़ी रही ही इसलिए होगी कि उसे सम्मानजनक तरीके से कमाने नहीं दिया जाता होगा और उसे गा, बजा व नाच कर आजीविका चलाने अथवा आपराधिक तरीकों से पेट पालने को मजबूर होना पड़ा होगा? जब यह स्पष्ट है कि अनेक जातियां आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण ही अन्य जातियों से हेय मानी जाती रहीं तो इस हेय शब्द पर आपत्ति करने को कोई मतलब ही नहीं रहता।
सर्वे फार्म में पूछे गए इस सवाल पर कि क्या उसे नीच या शूद्र समझा जाता रहा है, पर अगर ब्राह्मण, राजपूत व वैश्य को आपत्ति है तो इसका अर्थ ये है कि वह अपने आपको उच्च जाति का मानते हैं, जो कि प्रत्यक्षत: दिखाई भी दे रहा है। क्या यह सही नहीं है कि आम धारणा में ब्राह्मण-बनियों व राजपूतों को उच्च वर्ग का माना जाता है? उच्च वर्ग का माना ही इसलिए जाता है कि वे सामाजिक व आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत अधिक संपन्न रहे हैं। रहा सवाल इस बात का कि ब्राह्मण-बनियों व राजपूतों में से कुछ जाति वर्ग सर्वे फार्म में पूछे गए कारणों की बजाय अन्य कारणों से आर्थिक रूप से पिछड़ गए तो उन्हें प्रारंभ में ही यह दर्ज करवाना चाहिए था। आज जब ये जाति वर्ग अन्य पिछड़ा वर्ग का लाभ हासिल करना चाहते हैं तो उन्हें उस मापदंड को भी मानना चाहिए, जिसके तहत अन्य जातियों को अन्य पिछड़ा वर्ग का लाभ मिला है। ऐसा नहीं हो सकता कि उन्हें उच्च वर्ग का भी माना जााए और आर्थिक रूप से पिछड़ा भी माना जाए। अगर यह मान भी लिया जाए कि कुछ लोग थे तो उच्च वर्ग के, लेकिन किन्हीं कारणों से विपन्न हो गए तो उसे स्पष्ट करते हुए आरक्षण की मांग की जानी चाहिए थी।
बहरहाल, बहस की शुरुआत हो गई है और इसी प्रकार नुक्ताचीनी और राजनीति की जाती रही तो ब्राह्मण-बनियों व राजपूतों में जो लोग वाकई जरूरतमंद हैं, वे आरक्षण का लाभ लेने से वंचित हो जाएंगे। और अगर आरक्षण का लाभ लेना है तो सामाजिक रूप से पिछड़ेपन को स्वीकार करने को मूूंछ का सवाल नहीं बनाना चाहिए।

बुधवार, 12 जनवरी 2011

क्या विस्फोट से हिंदुओं को दरगाह में जाने से रोका जा सकता है?

सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह में सन् 2007 में हुए बम विस्फोट के आरोप में गिरफ्तार असीमानंद ने खुलासा किया है कि बम विस्फोट किया ही इस मकसद से गया था कि दरगाह में हिंदुओं को जाने से रोका जाए। इकबालिया बयान में दी गई इस जानकारी को अगर सच मान लिया जाए तो यह वाकई एक बचकाना हरकत है। कदाचित वे यह बयान देते कि हिंदू धर्म स्थलों पर बम विस्फोट की प्रतिक्रिया में विस्फोट किया गया था तो बात गले उतर सकती थी, मगर विस्फोट करके हिंदुओं को दरगाह में जाने से रोकने का प्रयास किया गया था, यह नितांत असंभव है। असंभव इसलिए कि उसकी एक खास वजह है, जिसका किसी भी कट्टरपंथी के पास कोई उपाय नहीं है।
अव्वल तो अगर हिंदुओं को डराने के लिए विस्फोट किया था तो विस्फोट करने से पहले या उसके तुरंत बाद हिंदुओं को चेतावनी क्यों नहीं दी गई? इतनी ही हिम्मत थी तो विस्फोट करके उसकी जिम्मेदारी लेते। उनके मकसद का आज जा कर खुलासा हो रहा है। भला हिंदुओं को सपना थोड़े ही आएगा कि असीमानंद जी महाराज ने उन्हें दरगाह में न जाने की हिदायत में तोप दागी है। और अगर हिदायत दी भी है तो कौन सा हिंदू उसको मानने वाला है? दरगाह बम विस्फोट की बात छोड़ भी दें तो आज तक किसी भी कट्टरपंथी हिंदू संगठन ने ऐसे कोई निर्देश जारी करने की हिमाकत नहीं की है कि हिंदू दरगाह में नहीं जाएं। वे जानते हैं कि उनके कहने को कोई हिंदू मानने वाला नहीं है। इसकी एक महत्वपूर्ण वजह भी है। हालांकि यह सच है कि कट्टवादी हिंदुओं की सोच है कि हिंदुओं को दरगाह अथवा मुस्लिम धर्म स्थलों में नहीं जाना चाहिए। कट्टरपंथी तर्क ये देते हैं कि जब मुसलमान हिंदुओं के मंदिरों में नहीं जाते तो हिंदू क्यों मुस्लिम धर्मस्थलों पर मत्था टेकें। हिंदूवादी विचारधारा की पोषक भाजपा से जुड़े कट्टरपंथियों को भी यही तकलीफ है कि हिंदू दरगाह में क्यों जाते हैं, मगर स्वयं को वास्तविक धर्मनिरपेक्ष साबित करने अथवा स्वयं को कट्टरपंथ से दूर रखने और मुस्लिमों के भी वोट चाहने की मजबूरी में भाजपा के नेता दरगाह जियारत करते हैं। वे दरगाह में जाने से परहेज करके अपने आपको कोरा हिंदूवादी कहलाने से बचते हैं। कट्टरपंथी जब भाजपा नेताओं को ही दरगाह में जाने से नहीं रोक पाए तो भला आम हिंदू को दरगाह में जाने से कैसे रोक सकते हैं।
वस्तुत: धर्म और अध्यात्म निजी आस्था का मामला है। किसी को किसी धर्म का पालन करने के लिए जोर जबरदस्ती नहीं की जा सकती। यदि किसी हिंदू की अपने देवी-देवताओं के साथ पीर-फकीरों में भी आस्था है तो इसका कोई इलाज नहीं है। इसकी वजह ये है कि चाहे हिंदू ये कहें कि ईश्वर एक ही है, मगर उनकी आस्था छत्तीस करोड़ देवी-देवताओं में भी है। बहुईश्वरवाद के कारण ही हिंदू धर्म लचीला है। और इसी वजह से हिंदू धर्मावलम्बी कट्टरवादी नहीं हैं। उन्हें शिवजी, हनुमानजी और देवीमाता के आगे सिर झुकाने के साथ पीर-फकीरों की मजरों पर भी मत्था टेकने में कुछ गलत नजर नहीं आता। गलत नजर आने का सवाल भी नहीं है। किसी भी हिंदू धर्म ग्रंथ में भी यह कहीं नहीं लिखा है कि दरगाह, चर्च आदि पर जाना धर्म विरुद्ध है। इस बारे में एक लघु कथा बहुत पुरानी है कि नदी में डूबती नाव में मुस्लिम केवल इसी कारण बच गया कि क्यों कि उसने केवल अल्लाह को याद किया और हिंदू इसलिए डूब गया क्यों कि उसने एक के बाद एक देवी-देवता को पुकारा और सभी देवी-देवता एक दूसरे के भरोसे रहे। यानि ज्यादा मामा वाला भानजा भूखा ही रह गया।
जहां तक हिंदुओं की अपने धर्म के अतिरिक्त इस्लाम के प्रति भी श्रद्धा का सवाल है तो सच्चाई ये है कि अधिसंख्य हिंदू टोने-टोटकों के मामले में हिंदू तांत्रिकों की बजाय मुस्लिम तांत्रिकों के पास ज्यादा जाते हैं। वजह क्या है, ठीक पता नहीं, मगर कदाचित उनकी ये सोच हो सकती है कि मुस्लिम तंत्र विज्ञान ज्यादा प्रभावशाली है।
रहा सवाल मुस्लिमों को तो इस्लाम जिस मूल अवधारणा पर खड़ा है, उसमें जरूर मंदिर में मूर्ति के सामने सिर झुकाने को गलत माना जाता है। वह तो खड़ा ही बुत परस्ती के खिलाफ है। जिस प्रकार हिंदू धर्म का ही एक समुदाय आर्य समाज मूर्ति प्रथा के खिलाफ खड़ा हुआ है। जैसे आर्यसमाजी को मूर्ति के आगे झुकने के लिए प्रेरित नहीं किया जा सकता, वैसे ही मुस्लिम को भी बुतपरस्ती की प्रेरणा नहीं दी जा सकती। ये बात अलग है कि चुनाव में वोट पाने के लिए अजमेर के पांच बार सांसद रहे प्रमुख आर्यसमाजी प्रो. रासासिंह रावत अपने सामज के वोट पाने के लिए जातिसूचक लगाते रहे और राम मंदिर आंदोलन में भी खुल कर भाग लिया। एकेश्वरवाद की नींव पर विकसित हुए इस्लाम में अकेले खुदा को ही सर्वोच्च सत्ता माना गया है। एक जमाना था जब अलग कबीलों के लोग अपने बुजुर्गों को ही अपना खुदा मानते थे, मगर इस्लाम के पैगंबर ने यह अवधारणा स्थापित की कि अल्लाह एक है, उसी को सर्वोच्च मानना चाहिए। सम्मान में भले किसी के आगे झुकने की छूट है, मगर सजदा केवल खुदा के सामने ही करने का विधान है। ऐसे में भला हिंदू कट्टरपंथियों का यह तर्क कहां ठहरता है कि अगर हिंदू मजारों पर हाजिरी देता है तो मुस्लिमों को भी मंदिर में दर्शन करने को जाना चाहिए। सीधी-सीधी बात है मुस्लिम अपने धर्म का पालन करते हुए हिंदू धर्मस्थलों पर नहीं जाता, जब कि हिंदू इसी कारण मुस्लिम धर्म स्थलों पर चला जाता है, क्यों कि उसके धर्म विधान में देवी-देवता अथवा पीर-फकीर को नहीं मानने की कोई हिदायत नहीं है। और यही वजह है कि दरगाह में मुस्लिमों से ज्यादा हिंदू हाजिरी देते हैं। इसका ये मतलब नहीं कि हिंदुओं की आस्था मुस्लिमों से ज्यादा है, अपितु इसलिए कि हिंदू बहुसंख्यक हैं। स्वाभाविक रूप से जियारत करने वालों में हिंदू ज्यादा होते हैं। यह बात दीगर है कि उनमें से कई इस कारण दरगाह जाते हैं कि उनका मकसद सिर झुकाना अथवा आस्था नहीं, बल्कि दरगाह को एक पर्यटन स्थल मानना है।

सोमवार, 10 जनवरी 2011

भला क्या ताल्लुक है शाह कलंदर का सैक्स से?

हाल ही मुंबई की एक दवा निर्माता कंपनी त्रिकाल द्वारा निर्मित मैनस्ट्रोक केअर कैप्सूल नामक गर्भपात की दवा के पैकेट पर किशनगढ़ शैली की विख्यात कलाकृति बणी-ठणी का उपयोग करने पर बवाल हो गया है। असल में बणी-ठणी भगवान कृष्ण की हृदयस्वरूपा राधा है, जिससे लोगों की धामिर्क भावनाएं आहत हुई हैं। किशनगढ़ के पूर्व महाराज बृजराज सिंह सहित विश्व हिंदू परिषद जिला अध्यक्ष विपुल चतुर्वेदी, भाजपा ब्लॉक अध्यक्ष नेमीचंद जोशी व ब्लॉक कांग्रेस अध्यक्ष हमीदा बानो ने इस पर कड़ा ऐतराज किया है। हालांकि उन सब का आपत्ति करना स्वाभाविक और उचित है, मगर सवाल ये उठता है कि क्या यह पहला मामला है, जिसमें इस प्रकार किसी देवी अथवा देवता के चित्र का उपयोग किया गया है? हमारे यहां अनेक ऐसे उत्पाद हैं, जिनमें इस प्रकार देवी-देवताओं के नाम या चित्र का उपयोग किया जाता है, मगर किसी को कोई ऐतराज नहीं होता। अगर होता भी है तो उसे नजर अंदाज कर देते हैं, किशनगढ़ वासियों की तरह सवाल नहीं उठाते।
जरा गौर करेंगे तो आपको आसानी से अपने इर्द-गिर्द ही दिख जाएगा कि तम्बाकू व खेणी के पैकेट पर गणेशजी, बीड़ी पर शंकर भगवान छपे हुए हैं। सोचनीय है कि इन मादक पदार्थों का देवी-देवताओं से क्या ताल्लुक है? आतिशबाजी के पैकेटों पर भी लक्ष्मीजी और माचिस की डिबियाओं पर किसी देवता का चित्र नजर आ जाएगा। लक्ष्मीजी का आतिशबाजी से क्या लेना-देना है? अनेक खाद्य पदार्थों के पैकेटों पर भी इसी प्रकार देवताओं के फोटो छापे जा रहे हैं। इतना ही नहीं, सूफी परंपरा के महान संत शाह कलंदर के नाम पर कामशक्ति बढ़ाने वाला एक तेल बिक रहा है। बिक ही नहीं रहा, उसका प्रचार धड़ल्ले से एफएम रेडियो पर रोजाना सैकड़ों बार होता है। जिन कलंदर की लौ खुदा से लगी हुई है, उनका भला सैक्स से क्या संबंध है? हम गरीब नवाज ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती के नाम का उपयोग कर चंदा उगाहने पर किसी पाकिस्तानी संस्था के बारे में तो विरोध दर्ज करवाते हैं, मगर शाह कलंदर के नाम का उपयोग कामदेव के रूप में करने पर चुप बैठे रहते हैं। यदि हमारी देवी-देवताओं के प्रति अगाध श्रद्धा है तो यह श्रद्धा उस समय कहां चली जाती है, जब ऐसे विभिन्न उत्पादों के पैकेट या पाउच उपयोग के बाद गंदगी में पड़े होते हैं। असल में हम ऊंची-ऊंची आदर्शपूर्ण बातें करने वाले और अपनी संस्कृति को दुनिया में सबसे महान बताते हुए गर्व से सीना फुलाने वाले भारतीयों की संवेदनाएं समाप्त हो गई हैं। तभी तो इस प्रकार के उत्पाद धड़ल्ले से बिक रहे हैं।
यूं धर्म के नाम पर बड़े-बड़े फसाद कर खून की नदियां बहाने वाले हम लोग अपने आपको ऐसा जताते हैं कि मानो हमसे ज्यादा धार्मिक इस दुनिया में कोई नहीं, मगर असल बात ये नजर आती है कि धर्म का उपयोग हम सप्रदायवाद के लिए करते हैं। तभी तो जिन भगवान राम के नाम पर देश की चूलें हिला देने वाले हम लोग भगवान राम और राम भक्त हनुमान के बारे में, सीताजी के बारे में बने चुटकलों के एसएमएस धड़ल्ले से एक-दूसरे को भेज कर मजा उठाते हैं। क्या वह एसएमएस आम नहीं हो गया है, जिसमें कहा गया है कि किसी की पत्नी खो जाने पर जब वह भगवान राम से विनती करता है तो राम कहते हैं कि हनुमान के पास जाओ, मेरी पत्नी खोने पर भी वही ढूंढ़ कर लाया था। ऐसे ही अनेक एसएमएस हम हजम किए जा रहे हैं। क्या यह सच नहीं है कि किसी आशिकमिजाज व्यक्ति को हम बड़े सहज अंदाज में हमारे आदर्श पूर्ण योगी भगवान कृष्ण के नाम से जोड़ देते हैं? क्या यह सही नहीं है कि बदचलन औरतें द्रोपदी का नाम लेकर अपने चलन को जायज ठहराने की कोशिश करती हैं?
असल में हम दोहरी मानसिकता और दोहरे पैमानों के बीच जी रहे हैं। धर्म के प्रति हमारी आस्था बहुत ढ़ीली-ढ़ाली है। हमारे आदर्श कहने भर को हैं, उनके प्रति हमारी श्रद्धा दिखावा मात्र है। तभी तो एक ओर हम देश को आजादी दिलाने वाले राष्टपिता महात्मा गांधी की प्रतिमाएं देशभर में स्थापित करते हैं और उनकी जयंती व पुण्यतिथी मनाते हैं, दूसरी आम बोलचाल में टकला, बुड्ढ़ा और गंजा कह कर गाली देने से नहीं चूकते। जब तक हमारी प्रतिबद्धताएं इस प्रकार कांपती रहेंगी, इसी प्रकार आदर्शों और देवी-देवताओं का अपमान होता रहेगा। इसी प्रकार गर्भपात की दवाई राधा रानी के नाम से बेची जाती रहेगी।

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

...तो फिर मुख्यमंत्री पद छोड़ क्यों नहीं देते उमर अब्दुल्ला?

जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर स्थित लाल चौक पर तिरंगा फहराने के भाजयुमो के निर्णय और उस पर मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के बयान पर बवाल शुरू हो गया है। बवाल होना ही है। जब अपने ही देश में तिरंगा फहराने पर दंगा होने की चेतावनी दी जाएगी तो आग लगेगी ही। होना तो यह चाहिए था कि उमर अब्दुल्ला ये कहते कि भले ही कैसे भी हालात हों, मगर वे झंडा फहराने के लिए पूरी सुरक्षा मुहैया करवाएंगे। मगर उन्होंने यह कह कर कि भाजयुमो के झंडा फहराने पर दंगा हुआ तो उसकी जिम्मेदारी उसी की होगी, एक तरह से साफ मान लिया है कि वहां सरकार आतंवादियों के दबाव में ही काम कर रही है और सरकार का हालात पर कोई नियंत्रण नहीं है। और यदि नियंत्रण नहीं है तो फिर उनको पद बने रहने का कोई अधिकार भी नहीं है। असल बात तो ये है कि उन्हें एक कमजोर मुख्यमंत्री होने के कारण पहले ही हटाने की नौबत आ गई थी, मगर तब कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने यह कह कर बचा लिया कि उन्हें हालात से निपटने के लिए और समय दिया जाना चाहिए। लेकिन उमर अब्दुल्ला के ताजा बयान देने से यह साफ हो गया है कि उनका राज्य के जमीनी हालात पर नियंत्रण बिलकुल नहीं है। वे एक अनुभवहीन राजनेता हैं, जिनके लिए कश्मीर जैैसे जटिलताओं से भरे राज्य का नेतृत्व संभालना कत्तई संभव नहीं है। उनको और समय देने का कोई फायदा ही नहीं है।
हालांकि यह सही है आतंकवादियों ने यह चुनौती दी है कि भाजयुमो झंडा फहरा कर तो देखे अर्थात वे टकराव करने की चेतावनी दे रहे हैं, मगर एक मुख्यमंत्री का झंडा न फहराने की नसीहत देना साबित करता है कि वे आतंकवादियों से घबराये हुए हैं। भले ही उन्होंने कानून-व्यवस्था के लिहाज से ऐसा वक्तत्व दिया होगा, मगर क्या उन्होंने यह नहीं सोचा कि ऐसा कहने पर आतंकवादियों के हौसले और बुलंद होंगे। ऐसा करके न केवल उन्होंने हर राष्ट्रवादी को चुनौती दी है, अपितु आतंकवादियों को भी शह दे दी है।
यहां उल्लेखनीय है कि भाजयुमो के मूल संगठन भाजपा शुरू से कहती रही है कि कश्मीर के हालात बेकाबू होते जा रहे हैं। भाजपा का आरोप स्पष्ट आरोप है कि पाकिस्तान कश्मीर घाटी में पत्थरबाजी को आसान और प्रभावी हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा है। इसके लिए अलगाववाद प्रभावित जिलों में बाकायदा ट्रकों में भर-भरकर पत्थर लाए जाते हैं। प्रति ट्रक एक हजार से बारह सौ रुपए की दर से पत्थरों की सप्लाई होती है और पथराव करने वाले युवकों को पांच सौ रुपए प्रति दिन के हिसाब से भुगतान किया जाता है। केंद्र और राज्य सरकार ने भाजपा के आरोप को गंभीरता से नहीं लिया था। बाद में केंद्र और राज्य को इस बात का अहसास हुआ है कि पत्थरबाजी कोई छोटी-मोटी घटना नहीं है, बल्कि बाकायदा फिलस्तीन की तर्ज पर रणनीति के बतौर इस्तेमाल की जा रही है। कश्मीर घाटी में सुरक्षा बलों पर किए जा रहे हमले भी इसी रणनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा है। जरूरत तो इस बात की थी कि अपनी जान जोखिम में डालकर घाटी में आतंकवादियों का सामना कर रहे सुरक्षा बलों के हाथ मजबूत किए जाते और उन्हें जमीनी हालात को ध्यान में रखते हुए जवाबी कार्रवाई करने की छूट दी जाती। उलटे सीआरपीएफ को तथाकथित असंयमित प्रतिक्रिया के लिए कटघरे में खड़ा कर दिया गया। केंद्र सरकार शायद पाकिस्तान के साथ जारी बातचीत की ताजा प्रक्रिया के मद्देनजर इस दिशा में चुप्पी साधे हुए है, लेकिन गौर करने की बात यह है कि क्या दूसरा पक्ष पाकिस्तान भी ऐसा ही नजरिया अपना रहा है? राष्ट्रीय एकता, अखंडता और सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर जरूरत से ज्यादा संयम दिखाकर हम भारत विरोधी तत्वों और कश्मीर की जनता को सही संकेत नहीं दे रहे। एक ओर पूरा देश कश्मीर की घटनाओं से चिंतित है और दूसरी तरफ राज्य सरकार की निष्क्रियता और अदूरदर्शिता ने हालात को और नाजुक बना दिया है।
जम्मू कश्मीर की ताजा गुत्थी को सुलझाने के लिए केंद्र सरकार द्वारा फौरन कदम उठाए जाने की जरूरत है। वहां पाकिस्तान, अलगाववादियों, आतंकवादियों, विपक्षी दलों और लापरवाह प्रशासन जैसे सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए प्रभावी रणनीति बनाने की जरूरत है।

रविवार, 2 जनवरी 2011

पायलट की मध्यस्थता पर हो रहा है विरोधाभास

गुर्जर आरक्षण आंदोलन आज ऐसे मुकाम पर आ खड़ा हुआ है कि एक ओर आरक्षण के सर्वेसर्वा कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला मध्यस्थ के रूप में केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट और अन्य कांगे्रसी गुर्जर नेताओं पर विश्वास कर रहे हैं तो दूसरी ओर उन्हीं के समर्थक पायलट पर भरोसा करने से कतरा रहे हैं। विशेष रूप से अजमेर में तो यह विरोधाभास अधिक ही है।
गुर्जर आरक्षण संघर्ष समिति के अजमेर संभाग संयोजक ओम प्रकाश भडाना को शिकायत है कि पायलट मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की ही भाषा बोल रहे हैं। उनका तर्क ये है कि पायलट भी गहलोत की तरह ही हाईकोर्ट के निर्णय की दुहाई दे रहे हैं, जबकि पूरे गुर्जर समुदाय को पहले से पता है कि हाईकोर्ट का फैसला क्या है। पायलट को ये बताना चाहिए कि मौजूदा हालात में गुर्जरों को कैसे आरक्षण मिल सकता है। अब भडाणा को कौन बताए कि इसका जवाब तो खुद मुख्यमंत्री के पास नहीं है, तभी तो इतने दिन से सिर धुन रहे हैं। कभी टेबल पर ही बात करने पर अड़ते हैं तो कभी सरकार की ओर से ही रेलवे पटरियों पर ऊर्जा मंत्री डॉ. जितेन्द्र सिंह को भेजते हैं। कभी गुर्जरों को आम आदमी की तकलीफ की दुहाई दे कर आंदोलन समाप्त करने का आग्रह करते हैं तो कभी आम आदमी के सब्र का बांध टूटने का डर दिखाते हैं। मुख्यमंत्री तो क्या खुद बैंसला भी जानते हैं कि वर्तमान में कोई चारा नहीं रह गया है। किसी और का हक मार कर तो चार प्रतिशत आरक्षण दिया नहीं जा सकता। केवल इतना संभव है कि चार प्रतिशत आरक्षण की गारंटी ले ली जाए, जो कि सरकार देने को तैयार है। बस बात इसी बिंदु पर अटकी हुई है कि सरकार पर भरोसा कैसे कर लिया जाए, उसके लिए भी कोई जिम्मेदार कांग्रेसी गुर्जर नेता गारंटी ले। कांग्रेसी इसलिए ताकि बाद में सरकार गड़बड़ करे तो उसका गिरेबान पकड़ा जा सके। सीधी सी बात है, जब सरकार के पाले में बैठे गुर्जर नेता जब अपने समाज को आंदोलन समाप्त करने की अपील कर रहे हैं तो वे ही जिम्मेदारी लें कि बाद में सरकार नहीं पलटेगी।
असल में पूरी जद्दोजहद के बाद भी रिकार्डर की सुई वहीं अटकी हुई है, जहां हाईकोर्ट के फैसले वाले दिन अटकी हुई थी। बस फर्क इतना आया है कि मंत्रीमंडल ने बैठक कर चार प्रतिशत आरक्षण को नोशनल की बजाय वास्तविक कर दिया है। न तो भर्तियां रोकी जा सकती हैं और न ही अभी पूरा पांच प्रतिशत आरक्षण दिया जा सकता है। उलझी गुत्थी के लिए चाहे पूर्ववर्ती भाजपा सरकार जिम्मेदार हो या वर्तमान कांग्रेस सरकार, आम गुर्जर तो अपने आप को ठगा सा महसूस कर रहा है। इतने कष्टप्रद आंदोलन के बाद भी स्थिति जस की तस है। कांग्रेस अब कह रही है कि भाजपा सरकार के दौरान पारित विधेयक त्रुटिपूर्ण था, इस कारण मामला उलझा, मगर उसके पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि यदि ऐसा था तो उसने उस वक्त क्यों नहीं ध्यान इंगित किया। साफ है कि उस वक्त फच्चर डाल कर वह बुरा नहीं बनना चाहती थी। उसे पता था कि आगे जा कर मामला उलझेगा, तब यही दुहाई देंगे कि भाजपा सरकार ने विधेयक ही ऐसा पारित किया कि वह हाईकोर्ट में टिक नहीं पाया। राजनीति की इसी लड़ाई के बीच गुर्जर समाज पिस गया।
बहरहाल, भडाणा को भी बैंसला की तरह मध्यस्थ के रूप में पायलट पर भरोसा करना ही होगा। कदाचित उनकी तकलीफ ये हो सकती है कि अजमेर में पायलट के प्रभाव में ही कांग्रेसी गुर्जरों ने आंदोलन की हवा निकाल दी और दूसरी ओर पायलट ही मध्यस्थ बने हुए हैं। उनके प्रयासों से बर्फ कुछ पिघली है और उम्मीद की जा सकती है कि एक-दो दिन में रास्ता निकल आएगा।


शनिवार, 1 जनवरी 2011

मुख्यमंत्री की कुर्सी के करीब पहुंचने लगे सचिन पायलट

केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट मुख्यमंत्री पद के दावेदार हो सकते हैं, यह बात चंद रोज पहले प्री मैच्योर डिलेवरी और बचकानी लगती थी। हालांकि यह अब भी दूर की ही कौड़ी है कि सचिन पायलट को यकायक राज्य की राजनीति में ला कर मुख्यमंत्री या प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया जा सकता है, मगर यह इतना तय है कि वे शनै: शनै: मुख्यमंत्री की कुर्सी के करीब तो पहुंचते ही जा रहे हैं। अब तक तो मात्र सुगबुगाहट की हल्की सी किरण ही दिखाई देती थी कि आने वाले समय में वे मुख्यमंत्री पद के दावेदार हो सकते हैं, लेकिन अब तो खुल कर मांग ही होने लगी है। पूर्व विधायक व अखिल भारतीय गुर्जर महासभा के अध्यक्ष गोपीचंद गुर्जर ने तो दावा ही ठोक दिया है कि पायलट को मुख्यमंत्री बनाया जाए। इसी प्रकार गहलोत मंत्रीमंडल के सदस्य मुरारीलाल मीणा ने भी कहा है कि पायलट को दोनों में किसी एक पद पर आरूढ़ किया जाना चाहिए।
असल में यह तो शुरू से ही दिख रहा था कि जैसे-जैसे कांग्रेस के राजकुमार राहुल गांधी सत्ता का केन्द्र बनेंगे, उनकी टीम के सचिन पायलट की अहमियत भी बढ़ेगी। हालांकि स्वर्गीय राजेश पायलट के पुत्र होने के कारण उनका पाया मजबूत था, लेकिन साथ ही राहुल की पसंद होने के कारण उन्हें केन्द्रीय मंत्रीपरिषद में शामिल कर लिया गया। दिल्ली के पास बुराड़ी गांव में आयोजित कांगे्रस में राष्ट्रीय अधिवेशन में भले ही यह साफ घोषणा नहीं की गई कि अगले प्रधानमंत्री राहुल होंगे, लेकिन उनको यह जिम्मेदारी सौंपने की पैरवी तो खुल कर हुई। कांग्रेस के दिग्गज नेताओं तक को उनमें राजीव गांधी के दर्शन होने लगे। ऐसे में जाहिर तौर पर सचिन सहित राहुल की पूरी मित्र मंडली पावरफुल होती दिखाई दी। राहुल ब्रिगेड की पर्सनल किचन केबिनेट के सदस्य पायलट को जूनियर होते हुए भी मंच से बोलने का मौका दिया जाने से साफ हो गया कि कांग्रेस अब युवाओं को आगे लाना चाहती है।
विशेष रूप से पायलट के संदर्भ में इसके विशेष अर्थ निकाले जाने लगे। कई लोगों को उनमें राजस्थान का भावी मुख्यमंत्री नजर आने लगा। संयोग से राजस्थान में गुर्जर आंदोलन शुरू हो गया और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत संकट में आ गए। पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा के कार्यकाल में हुई गुर्जरों की शहादत को न दोहराने के लिए गहलोत ने आंदोलन से निपटने में सदाशयतापूर्वक गांधीवादी तरीका अपनाया, मगर जैसे ही आंदोलन लंबा हुआ और प्रदेश की जनता त्राहि-त्राहि करने लगी, यही सदाशयता उनको भारी पडऩे लगी है। एक अर्थ में उन्हें असफल मुख्यमंत्री के रूप में देखा जाने लगा है। उधर गहलोत को दुश्मन नंबर वन मानने वाली वसुंधरा ने भी मौका ताड़ कर कांग्रेस अधिवेशन में उपेक्षित हुए गहलोत पर वार शुरू कर दिए। गहलोत ने आंदोलन को खत्म करवाने के लिए ऊर्जा मंत्री डॉ. जितेन्द्र का पत्ता खेला, लेकिन वह फेल हो गया। नतीजतन कांग्रेस हाईकमान ने रातोंरात सचिन को जयपुर भेजा। इसे राज्य सरकार की असफलता ही कहा जाएगा कि आंदोलन से निपटने के लिए उसे केन्द्रीय मंत्री की मदद लेनी पड़ गई है। अंदरखाने की खबर तो यहां तक थी कि गुर्जरों को राजी करने के लिए पायलट को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाने का तानाबाना बुना जा रहा है।
गहलोत की असफलता और पायलट के लगातार बढ़ते जा रहे प्रभाव के बीच उनके समर्थकों को गर्म लोहे पर चोट करने का मौका मिल गया। गोपीचंद गुर्जर ने यह कह कर कि गहलोत पायलट को प्रदेशाध्यक्ष बनवा कर मुख्यमंत्री पद अपने लिए ही सुरक्षित करना चाहते हैं, खुले तौर पर पायलट की ओर से दावा ठोक दिया है। नहले पर दहला मारते हुए मुरारीलाल मीणा ने यह कह कर और बल दे दिया कि चाहे उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जाए या प्रदेशाध्यक्ष, मीणा समाज को खुशी होगी।
बहरहाल, यह कल्पना कब साकार होगी, कुछ कहा नहीं जा सकता, लेकिन पायलट की एंट्री इस रूप में तो हो ही गई है कि वे मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं। राजनीति में दावा ही सबसे महत्वपूर्ण होता है। उसके बिना दावे की बात करना ही अप्रासंगिक और हवाई लगती है। और एक बार बस दावा स्थापित हो जाए तो यूं समझिये कि आधा रास्ता पार हो गया, क्योंकि उसके लिए लोगों की मानसिक तैयारी शुरू हो जाती है। बाकी काम कांग्रेस की कल्चर कर देती है, जिसमें कैडर उतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना कि हाईकमान की पसंद।