बुधवार, 23 मार्च 2011

आखिर निकाल लिया निकाय प्रमुखों को बचाने का रास्ता

जैसी संभावना थी सरकार ने अपनी पार्टी के निकाय प्रमुखों को बचाने का रास्ता निकाल ही लिया। सरकार ने विधानसभा में नगरपालिका संशोधन कानून पारित कर दो साल तक अविश्वास प्रस्ताव नहीं लाए जा सकने और साथ ही राइट टू रिकॉल व्यवस्था को लागू कर दिया है।
वस्तुत: सरकार ने जब निकाय प्रमुखों के सीधे जनता के वोटों से चुनने की व्यवस्था की तक नगरपालिका कानून कि धारा 53 के तहत निकाय अध्यक्षों के खिलाफ चुनाव के एक साल बाद अविश्वास प्रस्ताव लाए जा सकने के प्रावधान था। हालांकि धारा 53 का प्रावधान दोनों ही पार्टियों के लिए एक बड़ा सरदर्द था, लेकिन ऐसा समझा जाता है कि सरकार को ज्यादा चिंता अपने निकाय प्रमुखों की हुई। सरकार ने देखा कि इससे एक साल बाद ही उसके निकाय प्रमुखों पर तलवार लटक जाएगी तो उसने धारा 53 को ही हटा दिया। सरकार के इस निर्णय को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई। हाईकोर्ट ने इसको असंवैधानिक बताते हुए रोक लगा दी। अर्थात एक साल पूरा होते ही, अजमेर व जयपुर सहित जहां भी कांग्रेस के निकाय प्रमुख थे और बोर्ड में भाजपा का बहुमत था, वहां अविश्वास प्रस्ताव की नौबत आ जाती। राजनीतिक जानकार समझ रहे थे कि सरकार इसका तोड़ जरूर निकालेगी, और वह भी इसी विधानसभा सत्र में। हुआ भी ऐसा ही। सरकार ने न केवल अविश्वास प्रस्ताव लाने की अवधि दो साल कर दी, अपितु उसे निकाय प्रमुख को हटाने की प्रक्रिया भी जटिल कर दी। अब पहले सदन के तीन-चौथाई सदस्यों को अविश्वास प्रस्ताव के लिए जिला कलेक्टर को अर्जी देनी होगी। कलेक्टर सदस्यों की तस्दीक करने के बाद 14 दिन के भीतर अपने प्रतिनिधि की अध्यक्षता में साधारण सभा की बैठक बुलाएंगे, जिसमें तीन-चौथाई बहुमत से ही अविश्वास प्रस्ताव पारित किया जा सकेगा। इसके बाद सरकार को सूचित किया जाएगा, जो कि चुनाव आयोग को जनमत संग्रह कराने का आग्रह करेगी। यह प्रक्रिया इतनी जटिल है कि आमतौर पर किसी भी निकाय प्रमुख के खिलाफ अविश्वास प्र्रस्ताव लाना असंभव सा होगा। पहले तो तीन-चौथाई बहुमत जुटाना की टेढ़ी खीर होगा। अगर तीन-चौथाई सदस्य जुट भी गए तो भी निकाय अध्यक्ष को जनता ही हटाएगी, न कि सदस्य।
हालांकि सरकार ने संशोधन कानून तो अपने निकाय प्रमुखों को बचाने के लिए पारित किया है और इससे निकाय प्रमुखों के निरंकुश होने का खतरा रहेगा, लेकिन इसका सकारात्मक पक्ष ये है कि अब निकाय प्रमुखों की इच्छा शक्ति बढ़ेगी और वे अब बिना किसी दबाव के काम कर सकेंगे। वरना वर्तमान स्थिति तो ये थी कि विशेष रूप से अजमेर व जयपुर में मेयरों की हालत बेहद खराब थी। एक साल बाद ही अविश्वास प्रस्ताव आने के डर से वे भाजपा पार्षदों से घबराए हुए थे। इसका परिणाम ये हुआ कि एक तो वे कोई भी निर्णय करने से पहले दस बार सोचते थे, दूसरा मेयरों की कमजोरी का फायदा उठा कर प्रशासनिक अधिकारी हावी हुए जा रहे थे। जयपुर की मेयर ज्योति खंडेलवाल विपक्ष के हमलों से बेहद परेशान थीं। अफसर इतने हावी हो गए थे कि उन्हें उनके खिलाफ ही मोर्चा खोलना पड़ा। परिणाम स्वरूप अफसर भी लामबंद हो गए। इस प्रकार का गतिरोध पहली बार आया, जिससे निपटने के लिए सरकार को तेजतर्रार आईएएस राजेश यादव को सीएमओ से निगम के सीईओ के रूप में भेजना पड़ा। इसी प्रकार अजमेर में मेयर कमल बाकोलिया की कमजोरी के परिणामस्वरूप जब शहर बदहाली की राह पर चल पड़ा तो जिला प्रशासन को निगम के सफाई, अतिक्रमण व यातायात जैसे मूलभूत कामों में हस्तक्षेप का मौका मिल गया। निगम की स्वायत्तता बेमानी होनी लगी थी।
लब्बोलुआब दोनों ही निगमों में चुने हुए जनप्रतिनिधि निरीह से नजर आने लगे थे। खैर, अब जब कि सरकार ने कानून में संशोधन कर दिया है, निकाय प्रमुखों को काफी राहत मिल गई है। देखना ये है कि वे इसका सदुपयोग करते हुए जनता के प्रति अपनी जवाबदेही का पालन कितने बेहतर तरीके से करते हैं।
ताजा घटनाक्रम में सुकून वाली बात ये रही कि सरकार ने मनोनीत पार्षदों को भी वोट देने का अधिकार लागू करने का विचार त्याग दिया प्रतीत होता है। इस आशय के संकेत स्वायत्त शासन मंत्री शांति धारीवाल दे चुके थे, लेकिन समझा जाता है कि सरकार यह भलीभांति जानती थी कि इसको हाईकोर्ट में चुनौती जरूर दी जाती, इस कारण यह विचार ही त्याग दिया।

मंगलवार, 22 मार्च 2011

दवाइयों में लूट मची है ड्रग कंट्रोलर की लापरवाही से

यूं तो दवाइयों के मूल्य पर नियंत्रण रखने के लिए औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश, 1995 लागू है और उसकी पालना करने के लिए औषधि नियंत्रक संगठन बना हुआ है, लेकिन दवा निर्माता कंपनियों की मनमानी और औषधि नियंत्रक 6ड्रग कंट्रोलर8 की लापरवाही के कारण अनेक दवाइयां बाजार में लागत मूल्य से कई गुना महंगे दामों में बिक रही हैं। जाहिर तौर पर इससे इस गोरखधंधे में ड्रग कंट्रोलर की मिलीभगत का संदेह होता है और साथ ही डॉक्टरों की कमीशनबाजी की भी पुष्टि होती है।
वस्तुत: सरकार ने बीमारों को उचित दर पर दवाइयां उपलब्ध होने के लिए औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश, 1995 लागू कर रखा है। इसके तहत सभी दवा निर्माता कंपनियों को अपने उत्पादों पर अधिकतम विक्रय मूल्य सभी कर सहित 6एमआरपी इन्क्लूसिव ऑफ ऑल टैक्सेज8 छापना जरूरी है। इस एमआरपी में मटेरियल कॅास्ट, कन्वर्जन कॉस्ट, पैकिंग मटेरियल कॉस्ट व पैकिंग चार्जेज को मिला कर एक्स-फैक्ट्री कॉस्ट, एक्स फैक्ट्री कॉस्ट पर अधिकतम 100 प्रतिशत एमएपीई, एक्साइज ड्यूटी, सेल्स टैक्स-वैल्यू एडेड टैक्स और अन्य लोकल टैक्स को शामिल किया जाता है। अर्थात जैसे किसी दवाई की लागत या एक्स फैक्ट्री कॉस्ट एक रुपया है तो उस पर अधिकतम 100 प्रतिशत एमएपीई को मिला कर उसकी कीमत दो रुपए हो जाती है और उस पर सभी कर मिला कर एमआरपी कहलाती है। कोई भी रिटेलर उससे अधिक राशि नहीं वसूल सकता।
नियम ये भी है कि सभी दवा निर्माता कंपनियों को अपने उत्पादों की एमआरपी निर्धारित करने के लिए ड्रग कंट्रोलर से अनुमति लेनी होती है। उसकी स्वीकृति के बाद ही कोई दवाई बाजार में बेची जा सकती है। लेकिन जानकारी ये है कि इस नियम की पालना ठीक से नहीं हो रही। या तो दवा निर्माता कंपनियां ड्रग कंट्रोलर से अनुमति ले नहीं रहीं या फिर ले भी रही हैं तो ड्रग कंट्रोलर से स्वीकृत दर से अधिक दर से दवाइयां बेच रही हैं।
एक उदाहरण ही लीजिए। हिमाचल प्रदेश की अल्केम लेबोरेट्री लिमिटेड की गोली च्ए टू जेड एन एसज् की 15 गोलियों की स्ट्रिप की स्वीकृत दर 10 रुपए 52 पैसे मात्र है, जबकि बाजार में बिक रही स्ट्रिप पर अधिकतम खुदरा मूल्य 57 रुपए लिखा हुआ है। इसी से अंदाजा हो जाता है कि कितने बड़े पैमाने पर लूट मची हुई है। इसमें एक बारीक बात ये है कि स्वीकृत गोली का नाम तो च्ए टू जेडज् है, जबकि बाजार में बिक रही गोली का नाम च्ए टू जेड एन एसज् है। यह अंतर जानबूझ कर किया गया है। च्एन एसज् का मतलब होता है न्यूट्रिनेंटल सप्लीमेंट, जो दवाई के दायरे बाहर आ कर उसे एक फूड का रूप दे रही है। अर्थात दवाई बिक्री की स्वीकृति ड्रग कंट्रोलर से दवा उत्पाद के रूप में ली गई है, जबकि बाजार में उसका स्वरूप दवाई का नहीं, बल्कि खाद्य पदार्थ का है। इसका मतलब साफ है कि जब कभी बाजार में बिक रही दवाई को पकड़ा जाएगा तो निर्माता कंपनी यह कह कर आसानी से बच जाएगी कि यह तो खाद्य पदार्थ की श्रेणी में आती है, ड्रग कंट्रोल एक्ट के तहत उसे नहीं पकड़ा जा सकता। मगर सवाल ये उठता है कि जिस उत्पाद को सरकान ने दवाई मान कर स्वीकृत किया है तो उसे खाद्य पदार्थ के रूप में कैसे बेचा जा सकता है?
एक और उदाहरण देखिए, जिससे साफ हो जाता है कि एक ही केमिकल की दवाई की अलग-अलग कंपनी की दर में जमीन-आसमान का अंतर है। रिलैक्स फार्मास्यूटिकल्स प्रा. लि., हिमाचल प्रदेश द्वारा उत्पादित और मेनकाइंड फार्मा लि., नई दिल्ली द्वारा मार्केटेड गोली च्सिफाकाइंड-500ज् की दस गोलियों का अधिकतम खुदरा मूल्य 189 रुपए मात्र है, जबकि ईस्ट अफ्रीकन ओवरसीज, देहरादून-उत्तराखंड द्वारा निर्मित व सिट्रोक्स जेनेटिका इंडिया प्रा. लि. द्वारा मार्केटेड एलसैफ-50 की दस गोलियों की स्ट्रिप का अधिकतम खुदरा मूल्य 700 रुपए है। इन दोनों ही गोलियों में सेफ्रोक्सिम एक्सेटाइल केमिकल 500 मिलीग्राम है। एक ही दवाई की कीमत में इतना अंतर जाहिर करता है कि दवा निर्माता कंपनियां किस प्रकार मनमानी दर से दवाइयां बेच रही हैं और ड्रग कंट्रोलर हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। इससे यह भी साबित होता है कि बाजार में ज्यादा कीमत पर दवाइयां बेचने वाली कंपनियां डॉक्टरों व रिटेलरों को किस प्रकार आकर्षक कमीशन देती होंगी।
दरों में अंतर एक और गोरखधंधा देखिए। जयपुर की टोलिमा लेबोरेट्रीज का अजमेर के एक मेडिकल स्टोर को दिए गए बिल में 300 एमएल की टोल्युविट दवाई की 175 बोतलों की टे्रड रेट 18 रुपए के हिसाब से 3 हजार 150 रुपए और उस पर कर जोड़ कर उसे 3 हजार 621 रुपए की राशि अंकित की गई है, जबकि उसी बिल में दवाई की एमआरपी 70 रुपए दर्शा कर कुल राशि 12 हजार 250 दर्शायी गई है। अर्थात मात्र 18 रुपए की दवाई को रिटेलर को 70 रुपए में बेचने का अधिकार मिल गया है। तस्वीर का दूसरा रुख देखिए कि बीमार जिस दवाई के 70 रुपए अदा कर खुश हो रहा है कि वह महंगी दवाई पी कर जल्द तंदरुस्त हो जाएगा, उस दवाई को निर्माता कंपनी ने जब रिटेलर को ही 18 रुपए में बेचा है तो उस पर लागत कितनी आई होगी। यदि मोटे तौर पर एक सौ प्रतिशत एमएपीई ही मानें तो उसकी लागत बैठती होगी मात्र नौ रुपए। वह नौ रुपए लागत वाली दवाई कितनी असरदार होगी, इसकी सहज की कल्पना की जा सकती है।
कुल मिला कर यह या तो ड्रग कंट्रोलर की लापरवाही से हो रहा है या फिर मिलीभगत से। सवाल ये उठता है कि ऐसी दवा निर्माता कंपनियों व ड्रग कंट्रोलर को कंट्रोल कौन करेगा?
-गिरधर तेजवानी

शुक्रवार, 18 मार्च 2011

सांसद कोष : मांगने वाले भी खुद ही, देने वाले भी खुद ही, भई वाह !


केन्द्र सरकार ने अंतत: निर्णय कर ही लिया कि सांसद कोष को दो करोड़ से बढ़ा कर पांच करोड़ कर दिया जाए। सरकार ने क्या, सांसदों ने ही निर्णय किया है। मांग करने वाले भी सांसद और मांग पूरी करने वाले भी सांसद। खुद ने खुद को ही सरकारी खजाने से तीन करोड़ रुपए ज्यादा देने का निर्णय कर लिया। सांसद निधि बढ़ाने के निर्णय का कोई और विकल्प है भी नहीं। और दिलचस्प बात ये है कि राजनीतिक विचारधाराओं में लाख भिन्नता के बावजूद इस मसले पर सभी सांसद एकमत हो गए। भला अपने हित के कौन एक नहीं होता। मगर आमजन को यह सवाल करने का अधिकार तो है ही कि जिस मकसद से यह निर्णय किया गया है, वह पूरा होगा भी या नहीं? क्या वास्तव में इसका सदुपयोग होगा?
हालांकि कोष बढ़ाने के निर्णय के साथ यह तर्क दिया गया है कि इससे दूरदराज गांव-ढ़ाणी में रह रहे गरीब का उत्थान होगा, मगर इस तर्क से उस पूरे प्रशासनिक तंत्र पर सवालिया निशान लग जाता है, जो कि वास्तव में सरकार की रीढ़ की हड्डी है। एक सांसद तो फिर भी अपने कार्यकाल में संसदीय क्षेत्र के गांव-गांव ढ़ाणी-ढ़ाणी तक नहीं पहुंच पाता, जबकि प्रशासनिक तंत्र छोटे-छोटे मगरे-ढ़ाणी तक फैला हुआ है।
सवाल ये उठता है सांसद निधि बढ़ाए जाने के निर्णय से पहले धरातल पर जांच की गई कि क्या वास्तव में सांसद अपने विवेकाधीन कोष का लाभ जरूरतमंद को ही दे रहे हैं? क्या किसी सरकारी एजेंसी से जांच करवाई गई है कि सांसद निधि की बहुत सारी राशि ऐसी संस्थाओं को रेवड़ी की तरह बांट दी जाती है, जिससे व्यक्तिगत का व्यक्तिगत हित सधता है? चाहे वह वोटों के रूप में हो अथवा कमीशनबाजी के रूप में। कमीशनबाजी का खेल काल्पनिक नहीं है, कई बार ऐसे मामले सामने आ चुके हैं। सवाल ये भी है कि सांसद निधि बढ़ाए जाने से पहले क्या इसकी भी जांच कराई गई कि पहले जो दो करोड़ की राशि थी, वह भी ठीक से काम में ली गई है या नहीं?
हालांकि इस सभी सवालों के मायने यह नहीं है कि सांसद निधि का दुरुपयोग ही होता है, लेकिन यह तो सच है ही कि अनेक सांसद ऐसे हैं जो सांसद निधि का उपयोग करने में रुचि लेते ही नहीं। और जो लेते हैं वे किस तरह से अपने निकटस्थों और उनकी संस्थाओं को ऑब्लाइज करते हैं, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। इस सिलसिले में अंधा बांटे रेवड़ी, फिर-फिर अपनों को दे वाली कहावत अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं कही जाएगी। इसके अतिरिक्त जिन संस्थाओं को सांसद कोष से राशि दी जाती है, वे संस्थाएं अमूमन प्रभावशाली लोगों की होती हैं। इनमें पत्रकारों के संगठन व पत्रकार क्लबों को शामिल किया जा सकता है। जयपुर के पिंक सिटी क्लब में भी अनेक सांसदों व विधायकों के कोष की राशि खर्च की गई है। यानि जिन संस्थाओं को राशि दी जाती है, वे उतनी जरूरतमंद नहीं, जितने कि गरीब तबके के लोग। एक उदाहरण और देखिए। अजमेर के दो सांसदों औंकारसिंह लखावत व डॉ. प्रभा ठाकुर ने देशनोक स्थित करणी माता मंदिर के लिए इसलिए अपने कोष से राशि इसीलिए दे दी क्योंकि उन पर अपनी चारण जाति के प्रभावशाली लोगों का दबाव था। या फिर इसे उनकी श्रद्धा की उपमा दी जा सकती है। हालांकि यह सही है कि दोनों सांसदों ने नियमों के मुताबिक ही यह राशि दी होगी, इस कारण इसे चुनौती देना बेमानी होगा, मगर सवाल ये है कि देशभर में इस प्रकार खर्च की गई राशि से ठेठ गरीब आदमी को कितना लाभ मिलता है?
वस्तुस्थिति तो ये है कि इस राशि का उपयोग अपनी राजनीतिक विचारधारा का पोषित के लिए किया जाता है। अनेक सांसदों ने अपनी पार्टी की विचारधारा से संबद्ध दिवंगत अथवा जीवित नेताओं के नाम पर स्मारक, उद्यान आदि बनाने के लिए राशि दी है।
ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे, जिनमें आपको सांसद कोष से बने निर्माणों की दुर्दशा होती हुई मिल जाएगी। अजमेर का ही एक छोटा सा उदाहरण ले लीजिए। तत्कालीन भाजपा सांसद प्रो. रासासिंह रावत ने पत्रकारों को ऑब्लाइज करने के लिए सूचना केन्द्र में छोटा सा पत्रकार भवन बनाया, मगर उसका आज तक उपयोग नहीं हो पाया है। उस पर ताले ही लगे हुए हैं। रखरखाव के अभाव में वह जर्जर होने लगा है।
ऐसे में सांसद निधि को दो करोड़ से बढ़ा कर यकायक पांच करोड़ रुपए कर दिया जाना नि:संदेह नाजायज ही लगता है। सांसदों को अपनी निधि बढ़ाने से पहले ये तो सोचना चाहिए था कि यह पैसा आमजन की मेहनत की कमाई से बने कोष में से निकलेगा। एक ओर गरीबी हमारे देश की लाइलाज बीमारी बन गई है। सरकार के लाख प्रयासों और अनेकानेक योजनाओं के बाद भी बढ़ती जनसंख्या और महंगाई के कारण गरीबी नहीं मिटाई जा सकी है, दूसरी ओर सांसद निधि के नाम पर सरकारी कोष से करीब आठ सौ सांसदों को मिलने वाले अतिरिक्त चौबीस सौ करोड़ रुपए क्या जायज हैं? खैर, आमजन केवल सवाल ही उठा सकते हैं, उस पर निर्णय करना तो जनप्रतिनिधियों के ही हाथ में है। जब तक ये सवाल उनके दिल को नहीं छू लेते, तब तक कोई भी उम्मीद करना बेमानी है।

मंगलवार, 15 मार्च 2011

तीन कांग्रेस विधायकों की शोशेबाजी के मायने क्या हैं?

योग गुरू बाबा रामदेव की ओर से भ्रष्टाचार व कालेधन के खिलाफ छेड़ी गई मुहिम कामयाब हो या न हो, यह मुहिम उन्हें सत्ता की सीढ़ी चढऩे में कामयाबी दिलाए या नहीं, लेकिन उनके लगातार हल्ला मचाने से कम से कम देशभर में भ्रष्टाचार खिलाफ माहौल तो बना ही है। हालांकि देश की सबसे छोटी इकाई नागरिक से लेकर शीर्ष तक भ्रष्टाचार का बोलबाला है, लेकिन हम कम से कम भ्रष्टाचार को सबसे बड़ी समस्या तो मानने ही लगे हैं। बाबा रामदेव की ओर से विशेष रूप से कांग्रेस पर निरंतर किए जा रहे हमलों से स्तंभित कांग्रेस के तीन सुपरिचित मुखर विधायकों डॉ. रघु शर्मा, प्रताप सिंह खाचरियावास व विधूड़ी ने भी भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगाने के लिए रथयात्रा आयोजित करने का बीड़ा उठाया है। जाहिर तौर पर सत्तारूढ़ पार्टी के विधायकों की इस शोशेबाजी पर सब चकित हैं और उनके इस नए नाटक की असली वजह का पता लगाने के लिए कयास लगा रहे हैं।
अव्वल तो उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाई जा रही मुहिम के लिए न तो पार्टी हाईकमान से अनुमति ली है और न ही मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को इसकी जानकारी दी है। इसकी पुष्टि इस बात से हो जाती है कि जब उनसे इस मुत्तलिक सवाल पूछा गया तो वे बोलते हैं कि इस मुहिम के लिए अनुमति लेने की जरूरत ही नहीं है, क्योंकि उनकी नेता श्रीमती सोनिया गांधी ने स्वयं बुराड़ी अधिवेशन में भ्रष्टाचार को मिटाने का आह्वान किया है और वे इसी के तहत मुहिम चला रहे हैं। श्रीमती गांधी, राहुल गांधी, मनमोहन सिंह, अशोक गहलोत व डॉ. सी. पी. जोशी को अपना नेता बताते हुए कहते हैं कि बावजूद इसके यदि हाईकमान ने मुहिम बंद करने को कहा तो वे उसके लिए तैयार हैं। साफ है कि यह निर्णय उनका खुद का है। हालांकि वे कह ये रहे हैं कि उनका अपनी सरकार से कोई विरोध नहीं है, लेकिन साथ ही यह कहने से भी गुरेज नहीं करते कि प्रशासन में भ्रष्टाचार का बोलबाला है, जिसको वे खत्म करना चाहते हैं। इस सिलसिले में मुख्यमंत्री गहलोत का भी नाम लेते हैं कि वे स्वयं भी कई बार प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार की ओर इशारा करते रहे हैं। ऐसा करके वे सरकार और प्रशासनिक तंत्र को अलग किए दे रहे हैं, जबकि वस्तुस्थिति ये है कि अधिसंख्य अधिकारी व कर्मचारी सरकार के अनुरूप अपने आपको ढ़ाल लेते हैं और सरकार के इशारे पर ही कामों को अंजाम देते हैं।
दिलचस्प बात ये है कि जब उनसे भ्रष्टाचार के खुलासे को कहा जाता है तो वे गिना पिछली भाजपा सरकार के दौरान हुए कथित 22 हजार करोड़ रुपए के घोटालों को रहे हैं। इसके लिए पूर्व मुख्यमंत्री शेर-ए-राजस्थान स्वर्गीय भैरोंसिंह शेखावत की ओर से भाजपा सरकार के दौरान हुए भ्रष्टाचार पर किए गए प्रहारों की आड़ लेते हैं। इससे अंदाजा ये होता है कि वे भाजपा की ओर से भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू होने वाले आंदोलन को डिफ्यूज करना चाहते हैं। सिर्फ इसी वजह से आशंका ये होती है कि कहीं वे हाईकमान के इशारे पर ही तो ऐसा नाटक नहीं कर रहे, क्योंकि कांग्रेस तो संगठन के बतौर अपनी सरकार के रहते भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई मुहिम चला नहीं सकती। ज्ञातव्य है कि तीनों विधायक मुंहफट हैं और आए दिन पार्टी लाइन से हट कर कुछ न कुछ बोलते रहते हैं। कदाचित उनकी इसी फितरत का इस्तेमाल किया जा रहा है। हालांकि इससे यह सवाल तो खड़ा होता ही है कि अगर पूर्व सरकार ने भ्रष्टाचार किया था तो कांग्रेस सरकार अपने दो साल के कार्यकाल में उसे अभी तक साबित क्यों नहीं कर पाई है, जबकि मुख्यमंत्री गहलोत ने कुर्सी पर काबिज होते ही अपने एजेंडे में वसुंधरा राज के भ्रष्टाचार को उजागर करने को सर्वाेपरि रखा था।
दिलचस्प बात ये है कि तीनों विधायक मंत्री पद के दावेदार हैं और मुख्यमंत्री ने उन्हें यह सौभाग्य दिया नहीं है। ऐसे में ठाले बैठे कुछ न कुछ करने की खातिर अपनी ऊर्जा का उपयोग इस मुहिम में लगा रहे हैं। वैसे भी सदैव चर्चा में बने रहने की इच्छा के चलते कई बार अपनी सरकार के ही मंत्रियों को घेरने से बाज नहीं आते। कभी अपना बताया हुआ काम न होने के बहाने तो कभी कार्यकर्ताओं की पैरवी करते हुए उन्हें राजनीतिक पदों से नवाजने का तर्क दे कर। बहरहाल, उनकी इस नौटंकी के मायने क्या हैं, ये फिलहाल तो किसी के समझ में आ नहीं रहे हैं, लेकिन उनके असंतुष्ट होने का इशारा जरूर कर रहे हैं।

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

हत्या के लिए पुलिस जिम्मेदार कैसे हो गई?

किशनगढ़ के कांग्रेस विधायक नाथूराम सिनोदिया के पुत्र भंवर सिनोदिया का अपहरण होने के बाद हत्या कर दिए जाने पर राजस्थान विधानसभा में भाजपा ने जम कर हंगामा किया। भाजपा विधायकों ने पुलिस पर ढि़लाई का आरोप लगाते हुए गृहमंत्री शांति धारीवाल से इस्तीफे की मांग कर डाली। धारीवाल के जवाब से असंतुष्ट विपक्ष ने सदन का बहिष्कार भी कर दिया। विपक्ष की यह भूमिका यंू तो सहज ही लगती है, मगर गहराई से विचार किया जाए तो यह पूरी तरह से बेमानी ही है।
अव्वल तो ऐसे विवादों में होने वाली हत्याएं सुनियोजित होते हुए भी उसकी जानकारी पुलिस को नहीं होती, जब तक कि संबंधित पक्ष इस प्रकार की आशंका न जाहिर करें। भंवर सिनोदिया की हत्या को भी ऑर्गेनाइज क्राइम की श्रेणी नहीं गिना जा सकता, जिसके बारे में पुलिस को घटना से पहले पता लग जाए। यदि किसी के बीच किसी सौदेबाजी का विवाद हो गया है और उसको लेकर अचानक किसी की हत्या कर दी जाती है, तो पुलिस को सपना कैसे आ सकता है कि इस प्रकार की वारदात हो सकती है? ऐसी हत्या के लिए भी पुलिस को दोषी देने की प्रवृत्ति कत्तई उचित नहीं कही जा सकती। भला इसमें पुलिस की ढि़लाई कहां से आ गई? पुलिस भला इस हत्या को कैसे रोक सकती थी? रहा सवाल हत्या के बाद पुलिस की भूमिका का तो उसने त्वरित कार्यवाही करके लाश का पता लगा लिया और दो आरोपियों को गिरफ्तार भी कर लिया। इतना ही नहीं उसने कानून-व्यवस्था के मद्देनजर तब हत्या के तथ्य को उजागर नहीं किया, जब तक कि लाश नहीं मिल गई। पुलिस को शाबाशी देना तो दूर, उसे गाली बकने की हमारी आदत सी बन गई है। इससे पुलिस अपना कर्तव्य निर्वहन करने को बाध्य हो न हो, हतोत्साहित जरूर होती है। माना कि विपक्ष को दबाव बनाने के लिए इस प्रकार विरोध जताना पड़ता है, मगर ऐसी हत्या, जिसके लिए न तो पुलिस जिम्मेदार है, न कानून-व्यवस्था और न ही गृहमंत्री, पुलिस को दोषी ठहाराना व गृहमंत्री के इस्तीफे की मांग करना हमारी इस प्रवृत्ति को उजागर करता है कि हंगामा करना ही हमारा मकसद है, हालात से हमारा कोई लेना-देना नहीं है। सवाल ये उठता है कि क्या भाजपा के राज में इस प्रकार ही हत्याएं नहीं हुईं? हालांकि तब कांग्रेस ने भी इसी प्रकार की प्रवृत्ति का इजहार किया था, लेकिन न तो तब के गृहमंत्री ने इस्तीफा दिया और न ही इस सरकार के गृहमंत्री इस्तीफा देने वाले हैं, मगर हमारी आदत है, इस्तीफा मांगने की सो मांगेगे। अकेले राजनीतिक लोग ही नहीं, हमारे मीडिया वाले भी कभी-कभी इस प्रकार की गैरजिम्मेदार हरकत कर बैठते हैं। गुरुवार को जब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सिनोदिया गांव में भंवर सिनोदिया के पिता विधायक नाथूराम सिनोदिया व परिजन को सांत्वना देने पहुंचे तो एक मीडिया वाले यह सवाल दाग दिया कि पहले बीकानेर में युवक कांग्रेस नेता की हत्या और अब विधायक पुत्र की हत्या को आप किस रूप में लेते हैं? एक अन्य ने पूछा कि क्या इससे ऐसा नहीं लगता कि प्रदेश में कानून-व्यवस्था बिगड़ गई है? जाहिर तौर पर गहलोत को यह कहना पड़ा कि क्राइम तो क्राइम है, इसका राजनीतिक अर्थ नहीं होता। सवाल ये उठता है कि हम सवाल पूछते वक्त ये ख्याल क्यों नहीं रखते कि ऐसे सवाल का क्या उत्तर आना है? अगर एक ही मामले में राजनीतिक रंजिश के कारण कांग्रेसियों की हत्या होती तो समझ में आ सकता था कि यह सवाल जायज है, मगर ऐसा प्रतीत होता है कि हम केवल कुछ पूछने मात्र के लिए ऐसे सवाल दागते हैं।
बहरहाल, अब जब कि जांच ओएसजी को दी जा चुकी है, उम्मीद की जानी चाहिए कि हत्या के पीछे अकेले व्यक्तिगत या व्यापारिक रंजिश थी, या फिर इसके पीछे कोई राजनीतिक द्वेषता थी, इसका पता लग जाएगा। वैसे पुलिस अब ज्यादा सतर्क होना पड़ेगा, क्योंकि जिस प्रकार विधायक के जवान बेटे की हत्या की गई है, उससे प्रतिहिंसा की आशंका तो उत्पन्न होती ही है।

गुरुवार, 10 मार्च 2011

वसुंधरा की आक्रामकता से कांग्रेसी खुश


हालांकि यूं तो हर राजनीति कार्यकर्ता अपने दल का ही पक्ष लेता है और उसे मजबूत करने की भी कोशिश करता है, लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि एक पार्टी का कार्यकर्ता दूसरे की पार्टी के मजबूत होने पर भी खुश होता है। कुछ ऐसा ही इन दिनों असंतुष्ट कांग्रेसी कार्यकर्ता के साथ हो रहा है। वे पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के विपक्ष का नेता बनने पर बेहद खुश हैं। जैसे ही वसुंधरा शेरनी की दहाड़ती हैं तो कुछ कांग्रेसियों के दिल आल्हाद से भर जाते हैं। हालांकि यह तथ्य है तो चौंकाने वाला, मगर है सौ फीसदी सच।
असल में कांग्रेस के सत्ता में आने के दो साल बीत चुके हैं, फिर भी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत द्वारा कार्यकर्ताओं को मलाईदार राजनीतिक पदों पर नियुक्त नहीं किया गया है। इससे अनेक कार्यकर्ता बेहद नाराज हैं। वे पार्टी अनुशासन के कारण कुछ बोल नहीं पा रहे, लेकिन अंदर ही अंदर कुड़ रहे हैं। सोचते हैं कि ऐसी पार्टी के लिए काम करने से फायदा ही क्या जो उनकी खैर-खबर न ले। आखिरकार वोट के लिए तो उन्हें ही जनता के बीच जाना पड़ता है। अगर सरकार उन्हें कुछ नहीं देगी तो वे अपने निचले कार्यकर्ताओं को कैसे खुश रखेंगे। उनकी सोच ये भी है कि गहलोत ने दो साल तो खराब कर दिए, अब भी कुछ नहीं मिलेगा तो वे आखिर कितने दिन तक पार्टी के पिदते रहेंगे। कुछ दिन पहले यह असंतोष उभर कर आया भी लेकिन फिर दब गया। अब जबकि वसुंधरा राजे विधानसभा में विपक्ष की नेता दुबारा बनी हैं, कांग्रेस कार्यकर्ताओं को अहसास है कि इससे भाजपा मजबूत होगी और गहलोत के लिए परेशानी खड़ी करेगी। सुना तो ये तक है कि वसुंधरा राजे ने भाजपा हाईकमान को यह तक झलकी दिखाई है कि वे कांग्रेस की सत्ता पलट देंगी। इसके पीछे तर्क ये माना जा रहा है कि कांग्रेस के ही अनेक विधायक इस कारण गहलोत से बेहद खफा हैं कि उन्होंने न तो उनको मंत्री पद से नवाजा और न ही उनके कार्यकर्ताओं को राजनीतिक नियुक्ति दी। उन विधायकों पर वसुंधरा डोरे डाल रही हैं। ऐसे में गहलोत परेशानी महसूस कर रहे हैं। वे जानते हैं कि अगर उन्होंने अपने विधायकों व कार्यकर्ताओं को खुश नहीं किया तो वे अंदर ही अंदर वसुंधरा की मदद कर सकते हैं। अत: अब उम्मीद की जा रही है कि जैसे ही विधानसभा सत्र समाप्त होगा, गहलोत नियुक्तियों का पिटारा खोल देंगे। कार्यकर्ताओं को भी उम्मीद है कि वसुंधरा के दबाव में आ कर गहलोत जल्द ही राजनीतिक नियुक्तियां करेंगे।

आरक्षण के मुद्दे ने कर दिया बोर्ड कर्मचारी संघ बंटाधार


पदोन्नति में आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट की ओर से अवैध ठहराये जाने के बाद समता मंच के आंदोलन के चलते राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के कर्मचारियों की समरसता भंग हो गई है। कर्मचारी बाकायदा दो गुटों में बंट गए हैं और मुकदमेबाजी भी हो गई है। ऐसे में बोर्ड कर्मचारी संघ में भी जबरदस्त खींचतान शुरू हो गई है। एक गुट ने तो बाकायदा नए चुनाव कराने की मांग कर डाली है।
दरअसल समता मंच की मांग के अनुरूप भारी दबाव में बोर्ड प्रबंधन ने पदावनत कर्मचारियों को उनके पुराने पदों पर भेज तो दिया, लेकिन इसी बीच अनुसूचित जाति के सहायक निदेशक छगनलाल व सवर्ण कर्मचारियों के बीच हुई नोंकझोंक मुकदमेबाजी तक पहुंच गई। छगनलाल ने जहां एससी एसटी एक्ट के तहत मुकदमा दर्ज करवाया, वहीं सवर्ण वर्ग के कर्मचारी नेता कैलाश खंडेलवाल ने भी छगनलाल के खिलाफ रास्ता रोक कर मारपीट का मुकदमा दर्ज करवा दिया। हालांकि बोर्ड प्रबंधन शुरू से ही चाहता था कि बोर्ड कर्मचारी संघ को मध्यस्थ बनाया जाए, लेकिन समता मंच के कर्मचारी इस कारण तैयार नहीं हुए कि एक तो उनके अनुसार कर्मचारी संघ बोर्ड अध्यक्ष की गोदी में बैठा हुआ था और दूसरा उसके अध्यक्ष सतीश जाटव अनुसूचित जाति वर्ग से हैं। मंच को उम्मीद ही नहीं थी कि कर्मचारी संघ न्यायोचित भूमिका अदा करेगा। ऐसे हालात में कर्मचारी संघ ने भी तटस्थ रहना ही उचित समझा। जाटव अनुसूचित जाति वर्ग के होने के बाद भी सभी वर्गों के सहयोग से अध्यक्ष बने थे, इस कारण उनके सामने भी धर्मसंकट था। अगर वे अनुसूचित जाति वर्ग का पक्ष लेते तो सामान्य वर्ग नाराज हो जाता और सामान्य वर्ग का पक्ष लेते तो अपने वर्ग को नाराज कर बैठते। उनकी तटस्थता समता मंच को बुरी लग गई। उनकी शिकायत है कि सहायक निदेशक छगनलाल ने झूठा मुकदमा दर्ज करवाया है, लेकिन संघ खामोश बना हुआ है। वह कर्मचारियों की कोई मदद नहीं कर रहा है। सवाल ये उठता है कि जब बोर्ड प्रबंधन अनुरोध कर रहा था कि कर्मचारी संघ को मध्यस्थ बनाना ठीक रहेगा तो कर्मचारियों ने उसे सिरे से क्यों ठुकरा दिया? ऐसे में वे अब कैसे उम्मीद कर रहे हैं कि वह उनकी मदद करे? इस लिहाज से हालांकि संघ की चुप्पी जायज प्रतीत होती है, लेकिन अब जब कि बोर्ड के कर्मचारी दो गुटों में बंट गए हैं व बड़ा गुट संघ के खिलाफ हो गया है, तो मौजूदा कार्यकारिणी संकट में आ गई है। बोर्ड कर्मचारी संघ में करीब 400 वोटर हैं, जबकि 228 कर्मचारियों ने नए चुनाव कराने के ज्ञापन पर हस्ताक्षर कर दिए हैं। अर्थात नई गुटबाजी के बाद बड़ा गुट संघ पर कब्जा करना चाहता है। देखते हैं अब क्या होता है? बहरहाल, कर्मचारी संघ का जो कुछ भी हो, मगर ताजा विवाद से बोर्ड का माहौल तो खराब हुआ ही है।

सच बोल कर भी फंस गए शिक्षा बोर्ड अध्यक्ष


एक बहुत पुरानी उक्ति है कि सच अमूमन कड़वा ही होता है। इसी कारण सच्चाई कई बार गले पड़ जाती है। यह उक्ति हाल ही राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड अध्यक्ष डॉ. सुभाष गर्ग पर सही उतर आई। नतीजतन उन्हें अपने एक दिन पहले दिए सच्चे बयान को भी दूसरे दिन सुधारना पड़ गया। हालांकि नकल के मुद्दे पर डॉ. गर्ग ने बयान ठीक ही दिया था कि शिक्षा कर्मी ही इसके लिए जिम्मेदार हैं, मगर जैसे ही बयान छपा, उन्हें लगा कि इससे पूरे राजस्थान के शिक्षा कर्मी उबल पड़ेंगे, तो दूसरे दिन ही उन्होंने अपने बयान को सुधार लिया।
जाहिर सी बात है कि परीक्षाएं भले ही बोर्ड आयोजित करता है, लेकिन धरातल पर उसे अंजाम दिलवाने की भूमिका तो शिक्षा कर्मी ही अदा करते हैं। ऐसे में जहां भी नकल होती है, वह शिक्षा कर्मियों की लापरवाही से ही होती है। जहां सामूहिक नकल होती है, वहां तो निश्चित रूप से संबंधित स्कूल प्रबंधन दोषी होता है। इस लिहाज से डॉ. गर्ग का बयान गलत नहीं था, लेकिन जिस ढंग से बयान छपा, उससे संदेश ये गया कि पूरा शिक्षा कर्मचारी जगत ही जिम्मेदार है, जब कि वास्तव में इसके लिए कतिपय शिक्षा कर्मी ही दोषी होते हैं। डॉ. गर्ग को आभास हो गया कि उन्होंने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है, वो भी तब जब कि बोर्ड की परीक्षाएं सिर पर हैं। भले ही नकल के लिए कुछ शिक्षा कर्मी जिम्मेदार हों, मगर शिक्षा कर्मियों के सहयोग के बिना बोर्ड परीक्षा आयोजित भी नहीं कर सकता। इस कारण उन्होंने दूसरे ही दिन नया बयान जारी कर कह दिया कि परीक्षाओं में नकल की प्रवृत्ति के लिये अभिभावक, विद्यार्थी, शिक्षक और समाज समान रूप से जिम्मेदार हैं। उन्हें स्वीकार करना पड़ा कि बोर्ड की परीक्षाओं का आयोजन शिक्षा विभाग की संयुक्त भागीदारी के बिना संभव नहीं है। इसलिए शिक्षा विभाग और बोर्ड एक सिक्के के दो पहलू के समान एक दूसरे के पूरक हैं।

सोमवार, 7 मार्च 2011

गहलोत ने भी दाग दिया सवाल, ये छोटा गहलोत कौन है?


आखिर तंग आ कर मुख्यमंत्री गहलोत ने भी सवाल दाग ही दिया कि पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे बताएं कि ये छोटा गहलोत कौन है? उल्लेखनीय है कि विपक्षी दल की नेता बनने के बाद वसुंधरा बार-बार अजमेर के जमीन घोटाले का हवाला देते हुए छोटे गहलोत का जिक्र कर रही हैं। हालांकि सब जानते हैं कि वसुंधरा किस ओर इशारा कर रही हैं, क्योंकि विधानसभा के पटल पर विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी ने जो परचा रखा, उसमें सब साफ लिखा है, मगर गहलोत समझते हुए भी सवाल उठा रहे हैं कि छोटा गहलोत कौन है? वे चाहते हैं कि वसुंधरा गोलमोल आरोप लगाने की बजाय खुल कर अपने मुंह से आरोप लगाएं ताकि उसका मुंह तोड़ जवाब दिया जा सके।
जाहिर सी बात है कथित भूमि घोटाले में छोटे गहलोत का ऑन दी रिकार्ड कहीं नाम नहीं है, ऐसे में भला गहलोत क्यों झूठा आरोप बर्दाश्त करने लगे। रहा सवाल कथित घोटाले से जुड़े लोगों के छोटे गहलोत से संबंध का सवाल तो पहले तो यह सबित करना होगा कि संबंध हैं भी नहीं, उसके अतिरिक्त किसी के किसी से संबंध होने मात्र से तो यह साबित नहीं हो जाता कि घोटाले में छोटे गहलोत शामिल हैं। उससे भी बड़ी बात ये है कि जिस कथित भूमि घोटाले के संदर्भ में बात चल रही है, उसमें तो गहलोत ने महज इसलिए त्वरित कार्यवाही करते हुए जमीन का आवंटन रद्द कर दिया है, क्यों कि एक परचे में छोटे गहलोत का हवाला दिया हुआ है। गहलोत अपने सफेद कुर्ते के प्रति बेहद सजग हैं। मंत्रियों पर भले ही आरोप लगते रहें, मगर वे नहीं चाहते कि उस पर खुद पर कोई दाग लग जाए। ठीक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जैसी स्थिति है। वे भी कई मंत्रियों के भ्रष्टाचार में लिप्त होने के आरोप लगने के बाद बावजूद खुद को मिस्टर क्लीन बनाए हुए हैं। उसी नक्शे कदम पर चलते हुए गहलोत व्यक्तिगत आरोप सुनने को तैयार नहीं हैं। ऐसे में गहलोत ने वसुंधरा को चुनौती दे दी है कि वे साफ बताएं कि छोटा गहलोत कौन हैं, ताकि उसकी जांच कराई जा सके। इस चुनौती के बाद देखें कि वसुंधरा क्या पटल वार करती हैं। चुप तो रहने वाली वे भी नहीं हैं। खैर, अपना तो सिर्फ यह कहना है कि ऐसा न हो कि वसुंधरा भी केवल पर्चे को आधार बना कर छोटे गहलोत का वास्तविक नाम न बताएं, उसे सप्रमाण साबित भी करें, तभी दूध का दूध और पानी का पानी होगा। वरना केवल छोटे गहलोत को पानी की तरह बिलोवणा कर के कोई मक्खन नहीं निकलने वाला है।

मेयरों की कमजोर हालत के लिए सरकार ही जिम्मेदार है

पिछले कुछ दिनों से यह साफ महसूस किया जाने लगा है कि अजमेर व जयपुर के कांग्रेसी मेयर अपने आपको कमजोर महसूस कर रहे हैं और उन्हें काम करने में परेशानी पेश आ रही है। दोनों ही स्थानों पर बोर्ड में भाजपा का बहुमत है। जयपुर की मेयर ज्योति खंडेलवाल को लगातार विपक्ष से संघर्ष करना पड़ रहा है। हर साधारण सभा में सिर फुटव्वल की नौबत आ जाती है। निगम की विभिन्न समितियों के गठन पर भी भारी विवाद हो चुका है। यहां तक मामले में हाईकोर्ट को दखल करना पड़ गया। राजनीतिक दलों के टकराव का परिणाम ये है कि अफसरशाही हावी हो गई है। इससे कुंठित हो कर आखिरकार वे सीधे अफसरों पर ही हमला कर बैठीं और अफसर लामबंद हो गए। इस प्रकार जनप्रतिनिधियों व अफसरों के बीच एक नए विवाद का जन्म हो गया। अब तराजू सरकार के हाथ में आ गई है।
इसी प्रकार अजमेर में मेयर कमल बाकोलिया को भी काम करने का फ्री हैंड इसलिए नहीं है कि यहां भी भाजपा पार्षदों की संख्या ज्यादा है और निगम की साधारण सभाओं में टकराव अवश्यंभावी हो गया है। उनकी इस कमजोर स्थिति का परिणाम ही है कि वे ठीक से काम नहीं कर पा रहे और जिला प्रशासन को निगम के सफाई, अतिक्रमण व यातायात जैसे मूलभूत कामों में हस्तक्षेप का मौका मिल गया। हालांकि इसमें जिला प्रशासन की मंशा पर शक नहीं किया जा सकता, लेकिन इससे निगम की स्वायत्तता पर तो प्रश्नचिन्ह लग ही गया है। हालांकि यह सही है कि निगम की असफलताओं की वजह से ही प्रशासन को दखल करने का मौका मिला है, लेकिन इससे जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले तो अपने आपको ठगा सा महसूस कर रहे हैं। यूं मेयरों को सीधे काफी अधिकार दिए हुए हैं, लेकिन परिस्थितियां ही ऐसी हैं कि वे उनका ठीक से इस्तेमाल नहीं कर पा रहे। कुल मिला कर दोनों ही निगमों में स्थिति ऐसी आ गई है कि चुने हुए जनप्रतिनिधियों का तो कोई मतलब ही नहीं रह गया है और अफसरों को मनमानी करने का मौका मिला हुआ है।
अगर जरा गौर करें कि ऐसी स्थितियां उत्पन्न क्यों हुई हैं तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि यह केवल इसी कारण से है कि सरकार ने इस बार निकाय चुनावों में निकाय प्रमुखों का स्वतंत्र चुनाव करवाया है। वस्तुत: जिस वक्त निकाय प्रमुखों का चुनाव सीधे जनता के वोटों से कराने का निर्णय किया गया था, तभी यह समझ लेना चाहिए था कि निकाय प्रमुख तो एक पार्टी का और बोर्ड दूसरी पार्टी का बन सकता है और उससे समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं, लेकिन उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। इसी का परिणाम ये हुआ कि अजमेर व जयपुर सहित अनेक निकायों में मेयर, सभापति व अध्यक्ष तो एक पार्टी का है, जबकि बोर्ड दूसरी पार्टी का बन गया। जयपुर व अजमेर में चल रहा टकराव तो उभर कर आ गया, जबकि अन्य में अंदर ही अंदर संघर्ष जारी है और इसी के कारण काम प्रभावित हो रहे हैं। इन संस्थाओं को जो कर्तव्य है, उसे वे पूरा नहीं कर पा रही हैं।
स्थानीय निकायों को लेकर और भी विसंगतियां हैं। चुनाव होने के बाद में सरकार को ये समझ में आया कि नगरपालिका कानून कि धारा 53 दिक्कत वाली है, जिसके तहत निकाय अध्यक्षों के खिलाफ चुनाव के एक साल बाद अविश्वास प्रस्ताव लाया जा सकता है। सरकार को लगा कि यह ठीक नहीं है तो उसने इस धारा को हटा दिया। हालांकि बाद में हाईकोर्ट ने उस पर रोक लगा दी। ऐसी स्थिति में मेयर चाह कर भी ईमानदारी से काम नहीं कर सकता, क्योंकि उसे कुर्सी पर बने रहने के लिए पार्षदों की गलत अपेक्षाओं को भी पूरा करना होगा। वस्तुत: धारा 53 का प्रावधान दोनों ही पार्टियों के लिए एक बड़ा सरदर्द है, लेकिन ऐसा समझा जाता है कि सरकार को ज्यादा चिंता अपने निकाय प्रमुखों की हुई। बहरहाल, अब चर्चा है कि सरकार इसके लिए विधानसभा में प्रस्ताव पारित करेगी। सरकार ने एक चालाकी ये की है कि धारा 39 को बरकरार रखा है, जिसके तहत वह चाहे तो किसी भी निकाय प्रमुख को हटा सकती है। यानि सरकार के इस कदम से जहां उसके निकाय प्रमुख तो सुरक्षित रखना चाहती है, वहीं विपक्षी दल भाजपा व अन्य के प्रमुखों पर तलवार लटका के रख रही है।
हालांकि कांग्रेस की अंदरूनी कलह के कारण सरकार अभी तक निकायों में पार्षदों का मनोनयन नहीं कर पाई है, लेकिन सुना है कि सरकार मनोनीत पार्षदों को भी वोट देने का अधिकार देने का मानस रखती है। इस आशय के संकेत स्वायत्त शासन मंत्री शांति धारीवाल दे चुके हैं। यदि उसे लागू कर दिया गया तो यह लोकतंत्र के लिए काला अध्याय बन जाएगा। भला राजनीतिक आधार पर मनोनीत पार्षद को चुने गए पार्षद के बराबर कैसे माना जा सकता है? ऐसे में चुने हुए बोर्ड का तो कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा। यदि सरकार ने यह प्रावधान किया तो अनेक निकायों में जहां बोर्ड विपक्ष का है, वहां कांग्रेस का बहुमत हो जाएगा और वे मनमानी करने को उतारु हो जाएंगे। जनता के माध्यम से चुन कर आए भाजपा पार्षद केवल मुंह ही ताकते रहेंगे। हालांकि यह फिलहाल काल्पनिक ही है, लेकिन यदि ऐसा करने की गलती की भी गई तो उसे कोर्ट में चुनौती दिया जाना भी पक्का है।

शुक्रवार, 4 मार्च 2011

साबित हो गई राजेश यादव की मुख्यमंत्री से नजदीकी


पिछले दिनों जब अजमेर के तत्कालीन जिला कलेक्टर राजेश यादव को सीएमओ में मुख्यमंत्री के विशिष्ट सचिव के रूप में तैनात किया गया था, तभी यह तथ्य स्थापित हो गया था कि वे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खासमखास हैं। कुछ लोग इसे अजमेर यूआईटी के घपले से जोड़ कर सजा के रूप में गिना रहे थे, जब कि अपुन ने तभी कह दिया था कि उनका कद इससे बढ़ गया है। उस वक्त मीडिया ने भी इस बात पर आश्चर्य जताया था कि सीएमओ में पहले से दो आईएएस होने के बावजूद यादव सहित दो युवा आईएएस क्यों लगाए गए हैं। कुछ लोगों का मानना था कि सीएमओ का अफसर एक बड़े बाबू जैसा होता है, क्योंकि उसके पास स्वयं में कोई अधिकार निहित नहीं होता और केवल मुख्यमंत्री व उच्चाधिकारियों के आदेश का पालन करना मात्र होता है। यादव को सीएमओ में लगाने के राजनीतिक हलकों में जो भी अर्थ लगाए गए, मगर इससे अजमेर में कांग्रेस के उन नेताओं के सीने पर सांप लौटने लगे थे, जिनको यादव ने अपने कार्यकाल में कभी नहीं गांठा। वे कई बार इसकी शिकायत मौखिक रूप से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से करते रहे, मगर यादव का बाल भी बांका नहीं हुआ। बाल बांका होना तो दूर, उलटे यादव का कद और बढ़ गया।
हाल ही जब जयपुर नगर निगम की महापौर ज्योति खंडेलवाल और निगम में तैनात चार आरएएस के बीच टकराव हुआ तो सरकार सकते में आ गई। ज्योति खंडेलवाल ने सार्वजनिक रूप से आरएएस अफसरों को अतिक्रमण किंग करार दिया तो अफसरों ने भी लामबंद हो कर विरोध जता दिया। नगरीय विकास मंत्री शांति धारीवाल तक भौंचक्के रह गए। गुत्थी इतनी उलझ गई कि मुख्यमंत्री को संकटमोचक के रूप में राजेश यादव ही याद आए और गुरुवार की देर रात उन्हें निगम का सीईओ बनाने के आदेश जारी कर दिए। जयपुर नगर निगम का सीईओ होना कोई छोटी-मोटी बात नहीं। एक तो जयपुर नगर निगम प्रदेश के मुख्यालय का स्थानीय निकाय है, जिस पर पूरे प्रदेश की नजर रहती है। दूसरा वहां मेयर तो कांगे्रस की ज्योति खंडेलवाल तो सदन में भाजपा का बहुमत होने के कारण आए दिन सिर फुटव्वल होती है। फिर यदि मेयर व आरएएस अफसरों में सीध टकराव हो जाए तो समझा जा सकता है कि वह जंग का कैसा मैदान बना हुआ है। ऐसे में उसमें सरकार के प्रतिनिधि के तहत सीईओ के पद पर काम करने वाला कितना महत्वपूर्ण हो जाता है, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। बहरहाल, अब तो यह पूरी तरह साफ हो गया है कि यादव मुख्यमंत्री के खासमखास हैं।
बोर्ड अध्यक्ष व संघ के हाथ में आ गई तराजू
राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड में कर्मचारी संघ को हाशिये पर रख कर समता मंच की ओर से कामय दबाव की वजह से अध्यक्ष डॉ. सुभाष गर्ग ने पदावनत कर्मचारियों को पुन: पुरानी सीटों पर तो भेज दिया, लेकिन परिणाम में बोर्ड कर्मचारी खुल कर दो खेमों में बंट गए हैं। एक वर्ग समता मंच से जुड़े कर्मचारियों के उपसचिव छगनलाल के साथ की गई कथित बदसलूकी के कारण लामबंद हो गया है। छगनलाल ने भी बदसूलकी करने वाले कर्मचारियों के खिलाफ एससी एसटी एक्ट के तहत मुकदमा दर्ज करवा दिया है। ऐसे में अपनी मांग मनवा लेने के बाद भी समता मंच के कर्मचारी रक्षात्मक मुद्रा में आ गए हैं। जाहिर तौर पर ऐसे में अब एक बार फिर ट्यूनिंग बैठा कर चल रहे बोर्ड अध्यक्ष डॉ. गर्ग व कर्मचारी संघ के हाथ में तराजू आ गई है।
यहां उल्लेखनीय है कि समता मंच के कर्मचारियों ने बोर्ड अध्यक्ष डॉ. गर्ग व कर्मचारी संघ की ट्यूनिंग के कारण संघ पर अविश्वास रखते हुए उसकी मध्यस्थता को नकार कर बोर्ड प्रशासन पर सीधे दबाव बनाया। बोर्ड सचिव मिरजूराम शर्मा के आग्रह के बावजूद कर्मचारियों ने यह कह कर संघ की मध्यस्थता से इंकार कर दिया कि संघ की ही माननी होती तो वे सीधे क्यों आते। उन्होंने बोर्ड अध्यक्ष डॉ. गर्ग को भी घेर लिया। चूंकि समता मंच की मांग सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुरूप थी, इस कारण डॉ. गर्ग को झुकना पड़ा। मगर बोर्ड सचिव मिरजूराम शर्मा के घेराव के दौरान अप्रत्याशित रूप से मौके पर आए उप सचिव छगनलाल के साथ कथित तौर पर आई गाली-गलौच की नौबत समता मंच पर भारी पड़ गई है। सच्चाई क्या है, ये तो घटनास्थल पर मौजूद कर्मचारी व अधिकारी ही जानें, मगर अब वे अपना बचाव करते हुए कह रहे हैं कि छगनलाल ने अनाप-शनाप बकते हुए एससी एसटी एक्ट के तहत मुकदमा दर्ज करवाने की धमकी दी थी। उनका ये भी कहना है कि इसके बारे में एसपी को ज्ञापन देने के बाद छगनलाल ने मुकदमा दर्ज करवाया है, अत: पुलिस के जांच अधिकारी को समता मंच के खिलाफ दर्ज मुकदमे की निष्पक्षता का ध्यान रखना चाहिए। साफ है कि वे ये कह कर मुकदमे की हवा निकालना चाहते हैं कि वह झूठा है और एससी एसटी एक्ट का दुरुपयोग करने का षड्यंत्र रचा जा रहा है। कुल मिला कर बोर्ड कर्मचारी समता मंच व आरक्षण मंच के बैनरों पर आमने-सामने आ गए हैं। यह स्थिति पूरे देश में अपनी विशिष्ट पहचान रखने वाले शिक्षा बोर्ड के लिए शर्मनाक हो गई है।
दूसरी ओर समता मंच के दबाव में मजबूरी में कर्मचारी संघ को एक तरफ रखने की परेशानी में आए बोर्ड अध्यक्ष डॉ. सुभाष गर्ग बोर्ड कर्मचारियों में उभरी नई गुटबाजी के कारण राहत में आ गए हैं। समता मंच के जिन कर्मचारियों के आगे उन्हें झुकना पड़ा था, उनका ही कानूनी पेंच में उलझना डॉ. गर्ग के लिए सुकून भरा माना जा सकता है। जाहिर तौर पर उन्हें अब दोनों गुटों के बीच तराजू रखने का मौका मिल गया है। इतना ही नहीं जिस कर्मचारी संघ को ताजा मसले पर उपेक्षा सहनी पड़ी थी वह भी अब मध्यस्थता करने की स्थिति में आ गया है। लब्बोलुआब एक बार फिर कूटनीति में माहिर डॉ. गर्ग को किस्मत से कूटनीतिक सफलता हाथ लगने जा रही है। इसके अतिरिक्त समता मंच के दबाव की वजह से डॉ. गर्ग व कर्मचारी संघ की ट्यूनिंग पर जो खतरा था, वह भी फिलहाल टलता नजर आ रहा है।