
गुर्जरों के ही एक नेता व राज्य के ऊर्जा मंत्री डॉ. जितेन्द्र सिंह को रेल पटरी पर भेजने के बाद भी सुलह नहीं हुई तो आखिर सरकार ने मंत्रीमंडल की बैठक बुला कर यह स्पष्ट कर दिया है कि अब वह कौन सी पटरी पर चलेगी। सरकार ने अपनी सीमा में जो कुछ हो सकता था, वह करने की सहमति तो दी ही, साथ ही एक सीमा के बाद अराजकता बर्दाश्त न करने की मंशा भी विज्ञापनों के जरिए जाहिर दी है। सरकारी विज्ञापन की भाषा से स्पष्ट है कि सरकार अब सख्त हो सकती है। अपील में कहा गया है कि प्रदेश में कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए राज्य सरकार प्रतिबद्ध है। सरकार को मजबूरन वे सारे कदम उठाने पड़ेंगे, जिससे आम आदमी को असुविधा न हो। अर्थ बिलकुल स्पष्ट है।
असल में सरकार को यह रुख इस कारण इस्तेमाल करना पड़ा क्यों कि आम जनता के साथ उस पर अब केन्द्र का भी दबाव आ रहा है। आंदोलन की आग दिल्ली की सत्ता तक पहुंचने पर उसने इशारा कर दिया है कि बहुत हो गया, इससे ज्यादा बर्दाश्त नहीं किया जा सकता, जो कुछ लेना-देना है, अब जल्द समाधान निकालो। एक अर्थ में इसे यूं कहा जा सकता है कि गहलोत को कह दिया गया है कि अगर आप आंदोलन से नहीं निपटते तो हम आपको निपटा देंगे। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का राज्यपाल शिवराज पाटिल के पास जा कर सफाई देने को इससे जोड़ कर देखा जा सकता है। ये तो गनीमत है कि पाटिल भी कांग्रेस पृष्ठभूमि के हैं, वरना वस्तुत: हालात ऐसे हो गए हैं कि अगर इसी जगह भाजपा या किसी और दल की सरकार होती तो राज्यपाल रिपोर्ट भेज देते कि राज्य की कानून-व्यवस्था बनाए रखना सरकार के बस में नहीं रहा है।
रहा सवाल विरोधी दल भाजपा का तो वह मूक दर्शक बन कर तमाशा देख रहा है। अमूमन ऐसा तमाशा सिर्फ वही देख सकता है, जिसके तार कहीं न कहीं आंदोलन से जुड़े हों। भाजपा को इस बात से तो मिर्ची लग रही है कि षड्यंत्र में उसका नाम न लिया जाए, मगर इस बात से कोई सरोकार नहीं कि सरकार और गुर्जरों की चक्की में आम आदमी पिस रहा है। राजस्थान के प्रति विशेष प्यार रखने वाली पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को भी इस बात तो पूरा ध्यान है कि कैसे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का नीचा दिखाया जाए, मगर इस बात से कोई मतलब नहीं कि जनता को तकलीफ से निकालने के लिए कुछ करें। एक बार भी उन्हें खयाल नहीं आया कि विरोधी दल के नाते राज्यपाल या राष्ट्रपति से दखल करने का आग्रह करें। कदाचित ऐसा इस वजह से हो कि इसकी जिम्मेदारी प्रदेश अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी की है। वे विरोधी दल की नेता होतीं तो विचार कर सकती थीं। वे इंकार तो कर रही हैं कि उनका आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं है, मगर उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि यदि कर्नल बैंसला गैर राजनीतिक आंदोलन चला रहे हैं तो किस वजह से उनकी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़े थे? बैंसला को पार्टी में कौन ले कर आया था?
आंदोलन के नेता कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला भी आम आदमी की तकलीफ को समझ रहे हैं, लेकिन साथ ही यह भी कह रहे हैं कि उनकी तकलीफ को भी तो समझा जाए। बार-बार आश्वासन देने के बाद भी कुछ नहीं देने पर सरकार पर कैसे भरोसा कर लिया जाए। भला बार-बार तो पटरी पर बैठा नहीं जा सकता, लिहाजा यह आखिरी संघर्ष है। साफ है कि वे अब पक्का आश्वासन चाहते हैं। कुल मिला कर विवाद ऐसे मुकाम पर आ गया है, जहां हालात के मद्देनजर समझौता किए बिना समाधान निकलना नहीं है। और इसके लिए वे ताकतें सक्रिय हो गई हैं, जो दोनों के बीच सेतु का काम करेंगी और साथ ही सरकार की ओर से गुर्जरों को गारंटी देंगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्द ही मामला आर-पार हो जाएगा।