रविवार, 20 फ़रवरी 2011

ऐसे मंत्रियों को जिताने के लिए कौन जिम्मेदार है?

इन दिनों शिक्षा मंत्री मास्टर भंवरलाल मेघवाल व तकनीकी शिक्षा राज्य मंत्री महेन्द्रजीत सिंह की अशुद्ध हिंदी को लेकर बड़ा बवाल मचा हुआ है। शिक्षा जगत की इस बदहाली पर शिक्षाविदों को तो पीड़ा है ही, पूर्व शिक्षा मंत्रियों ने भी विरोध दर्ज करवाया है। कोई ऐसे शिक्षा मंत्रियों को बच्चों की क्लास में बैठ कर हिंदी भाषा शुद्ध करने की सलाह दे रहा है तो कोई उनके विभाग बदलने की पैरवी कर रहा है। मगर समस्या की जड़ पर किसी का ध्यान नहीं है।
असल में मौलिक सवाल ये है कि ऐसे मंत्री विधायक के रूप में चुन कर आ ही कैसे जाते हैं? सीधा सा जवाब है, अन्य सभी पेशों के लिए संबंधित शैक्षिक डिग्रियां जरूरी हैं, मगर हमारे संविधान में आज तक इस तरह का कोई प्रावधान नहीं किया गया है कि देश या प्रदेश चलाने वालों के लिए भी शिक्षा का कोई मापदंड हो। मापदंड नहीं है, इसी कारण कम पढ़े-लिखे नेता पार्टी, धर्म, जाति, वर्ग, बाहुबल और धनबल के सहारे विधायक और सांसद बन जाते हैं। दस्यु सुंदरी फूलन जैसी महिलाएं तक संसद में पहुंच जाती हैं। कम पढ़े-लिखे मंत्रियों व विधायकों के दिशा-निर्देश पर काम करने को मजबूर उच्च शिक्षा प्राप्त अधिकारियों को कितनी पीड़ा होती है, ये तो वे ही अच्छी तरह से जानते हैं। नेता तो जानकारी के अभाव में वैध-अवैध निर्देश दे देते हैं और धरातल पर उनकी प्रैक्टिबेलिटी न होने का तथ्य समझाने में अधिकारियों की जिंदगी पूरी हो जाती है। अधिकारी अगर नियम का हवाला देता है तो उसे तबादला अथवा किसी अन्य प्रकार का दंड झेलना पड़ता है।
तस्वीर का दूसरा पहलु ये भी है कि नियमों की जानकारी न होने के कारण ही कई बार अफसरशाही नेताओं को चक्करघिन्नी कर देती है। ये सारी समस्याएं जनप्रतिनिधियों के लिए शिक्षा का कोई भी मापदंड न होने की वजह से है। इसी प्रकार एक बड़ी विसंगति ये है कि सरकारी सेवाओं के लोगों को तो हम एक उम्र के बाद काम का नहीं मानते हुए सेवानिवृत्त कर रहे हैं, मगर विधायकों व सांसदों की सेवानिवृत्ति की कोई उम्र निर्धारित नहीं है।
और रहा सवाल अकेले कम पढ़े-लिखे शिक्षा मंत्रियों का तो सच्चाई ये है कि अधिसंख्य हिंदी भाषी पढ़े-लिखे लोग शुद्ध हिंदी लिखना नहीं जानते हैं। गे्रज्युएट व पोस्ट ग्रेज्युएट तक हिंदी लिखने में गलती करते हैं। हम हमारे पढ़े-लिखे लोगों के शुद्ध अंग्रेजी न लिखने पर मजाक बनाते हैं, मगर अशुद्ध हिंदी लिखने को बड़ी आसानी से निगल जाते हैं। और केवल शिक्षा मंत्रियों के कम पढ़े-लिखे होने पर ही सवाल खड़ा करते हुए उनके विभाग बदलने की बात करते हैं तो क्या वे अन्य विभागों में सहजता से काम कर लेंगे। कहने भर को हम खुश हो जाएंगे हमने कम से कम शिक्षा विभाग में तो पढ़ा-लिखा मंत्री लगा लिया है। अन्य भी जितने विभाग हैं, वहां कौन सा कम पढ़ा-लिखा मंत्री चल जाएगा। मगर दुर्भाग्य से चल ही रहा है। चल ही नहीं रहा, धड़ल्ले से दौड़ रहा है। तभी तो मालवीय जैसे मंत्री निर्लज्ज हो कर यह कहने से नहीं चूकते कि मैं तो गांव का आठवीं पास मंत्री हूं। इसी तरह लिखता रहूंगा। मैं कोई ज्ञाता तो हूं नहीं, जो एक मात्रा की भी गलती नहीं करूं। मगर अफसोस कि उन्हें यह कह कर रोकने वाला कोई नहीं कि भले आदमी, यदि आठवीं पास है और मात्रा की गलती करेगा ही तो अपना शैक्षिक ज्ञान अपने पास ही रख, क्या जरूरत पड़ी है जो बच्चों के सामने ब्लैक बोर्ड पर उघाड़ कर परेशानी में पड़ता है।
इन सब बातों से इतर अहम बात ये है कि चलो संविधान में गर शैक्षिक मापदंड का प्रावधान नहीं है, लेकिन हम भी वोट देते समय यह नहीं देखते कि प्रत्याशी पढ़ा-लिखा है भी या नहीं। हमारे वोट डालने के पैमाने ही ऐसे हैं कि कहने भर को हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं, मगर सच्चाई ये है कि यह छद्म लोकतंत्र है, जिसमें शरीफ और योग्य आदमी की बजाय चालाक व धनपति चुन कर आ रहे हैं। ऐसे में हम अपेक्षा ही क्यों करते हैं कि हमारे मंत्री हिंदी की वर्तनी में गलती न करें। वैसे भी राजनीति करने के लिए वर्तनी की जानकारी की जरूरत क्या है? वर्तनी की ज्यादा जानकारी करने वालों की किस्मत में तो वर्तनी की गलतियां करने वालों की चाकरी करना बदा है। रहा सवाल संविधान का तो दुर्भाग्य की बात ये है कि उसमें शैक्षिक मापदंड का प्रावधान लागू करने की जिम्मेदारी भी उन्हीं सांसदों पर है, जिनमें से कई कम पढ़े-लिखे हैं। वे भला ऐसे मापदंड का लागू कर के क्यों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारेंगे।

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