शनिवार, 1 जनवरी 2011

मुख्यमंत्री की कुर्सी के करीब पहुंचने लगे सचिन पायलट

केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट मुख्यमंत्री पद के दावेदार हो सकते हैं, यह बात चंद रोज पहले प्री मैच्योर डिलेवरी और बचकानी लगती थी। हालांकि यह अब भी दूर की ही कौड़ी है कि सचिन पायलट को यकायक राज्य की राजनीति में ला कर मुख्यमंत्री या प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया जा सकता है, मगर यह इतना तय है कि वे शनै: शनै: मुख्यमंत्री की कुर्सी के करीब तो पहुंचते ही जा रहे हैं। अब तक तो मात्र सुगबुगाहट की हल्की सी किरण ही दिखाई देती थी कि आने वाले समय में वे मुख्यमंत्री पद के दावेदार हो सकते हैं, लेकिन अब तो खुल कर मांग ही होने लगी है। पूर्व विधायक व अखिल भारतीय गुर्जर महासभा के अध्यक्ष गोपीचंद गुर्जर ने तो दावा ही ठोक दिया है कि पायलट को मुख्यमंत्री बनाया जाए। इसी प्रकार गहलोत मंत्रीमंडल के सदस्य मुरारीलाल मीणा ने भी कहा है कि पायलट को दोनों में किसी एक पद पर आरूढ़ किया जाना चाहिए।
असल में यह तो शुरू से ही दिख रहा था कि जैसे-जैसे कांग्रेस के राजकुमार राहुल गांधी सत्ता का केन्द्र बनेंगे, उनकी टीम के सचिन पायलट की अहमियत भी बढ़ेगी। हालांकि स्वर्गीय राजेश पायलट के पुत्र होने के कारण उनका पाया मजबूत था, लेकिन साथ ही राहुल की पसंद होने के कारण उन्हें केन्द्रीय मंत्रीपरिषद में शामिल कर लिया गया। दिल्ली के पास बुराड़ी गांव में आयोजित कांगे्रस में राष्ट्रीय अधिवेशन में भले ही यह साफ घोषणा नहीं की गई कि अगले प्रधानमंत्री राहुल होंगे, लेकिन उनको यह जिम्मेदारी सौंपने की पैरवी तो खुल कर हुई। कांग्रेस के दिग्गज नेताओं तक को उनमें राजीव गांधी के दर्शन होने लगे। ऐसे में जाहिर तौर पर सचिन सहित राहुल की पूरी मित्र मंडली पावरफुल होती दिखाई दी। राहुल ब्रिगेड की पर्सनल किचन केबिनेट के सदस्य पायलट को जूनियर होते हुए भी मंच से बोलने का मौका दिया जाने से साफ हो गया कि कांग्रेस अब युवाओं को आगे लाना चाहती है।
विशेष रूप से पायलट के संदर्भ में इसके विशेष अर्थ निकाले जाने लगे। कई लोगों को उनमें राजस्थान का भावी मुख्यमंत्री नजर आने लगा। संयोग से राजस्थान में गुर्जर आंदोलन शुरू हो गया और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत संकट में आ गए। पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा के कार्यकाल में हुई गुर्जरों की शहादत को न दोहराने के लिए गहलोत ने आंदोलन से निपटने में सदाशयतापूर्वक गांधीवादी तरीका अपनाया, मगर जैसे ही आंदोलन लंबा हुआ और प्रदेश की जनता त्राहि-त्राहि करने लगी, यही सदाशयता उनको भारी पडऩे लगी है। एक अर्थ में उन्हें असफल मुख्यमंत्री के रूप में देखा जाने लगा है। उधर गहलोत को दुश्मन नंबर वन मानने वाली वसुंधरा ने भी मौका ताड़ कर कांग्रेस अधिवेशन में उपेक्षित हुए गहलोत पर वार शुरू कर दिए। गहलोत ने आंदोलन को खत्म करवाने के लिए ऊर्जा मंत्री डॉ. जितेन्द्र का पत्ता खेला, लेकिन वह फेल हो गया। नतीजतन कांग्रेस हाईकमान ने रातोंरात सचिन को जयपुर भेजा। इसे राज्य सरकार की असफलता ही कहा जाएगा कि आंदोलन से निपटने के लिए उसे केन्द्रीय मंत्री की मदद लेनी पड़ गई है। अंदरखाने की खबर तो यहां तक थी कि गुर्जरों को राजी करने के लिए पायलट को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाने का तानाबाना बुना जा रहा है।
गहलोत की असफलता और पायलट के लगातार बढ़ते जा रहे प्रभाव के बीच उनके समर्थकों को गर्म लोहे पर चोट करने का मौका मिल गया। गोपीचंद गुर्जर ने यह कह कर कि गहलोत पायलट को प्रदेशाध्यक्ष बनवा कर मुख्यमंत्री पद अपने लिए ही सुरक्षित करना चाहते हैं, खुले तौर पर पायलट की ओर से दावा ठोक दिया है। नहले पर दहला मारते हुए मुरारीलाल मीणा ने यह कह कर और बल दे दिया कि चाहे उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जाए या प्रदेशाध्यक्ष, मीणा समाज को खुशी होगी।
बहरहाल, यह कल्पना कब साकार होगी, कुछ कहा नहीं जा सकता, लेकिन पायलट की एंट्री इस रूप में तो हो ही गई है कि वे मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं। राजनीति में दावा ही सबसे महत्वपूर्ण होता है। उसके बिना दावे की बात करना ही अप्रासंगिक और हवाई लगती है। और एक बार बस दावा स्थापित हो जाए तो यूं समझिये कि आधा रास्ता पार हो गया, क्योंकि उसके लिए लोगों की मानसिक तैयारी शुरू हो जाती है। बाकी काम कांग्रेस की कल्चर कर देती है, जिसमें कैडर उतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना कि हाईकमान की पसंद।

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