सोमवार, 7 मार्च 2011

मेयरों की कमजोर हालत के लिए सरकार ही जिम्मेदार है

पिछले कुछ दिनों से यह साफ महसूस किया जाने लगा है कि अजमेर व जयपुर के कांग्रेसी मेयर अपने आपको कमजोर महसूस कर रहे हैं और उन्हें काम करने में परेशानी पेश आ रही है। दोनों ही स्थानों पर बोर्ड में भाजपा का बहुमत है। जयपुर की मेयर ज्योति खंडेलवाल को लगातार विपक्ष से संघर्ष करना पड़ रहा है। हर साधारण सभा में सिर फुटव्वल की नौबत आ जाती है। निगम की विभिन्न समितियों के गठन पर भी भारी विवाद हो चुका है। यहां तक मामले में हाईकोर्ट को दखल करना पड़ गया। राजनीतिक दलों के टकराव का परिणाम ये है कि अफसरशाही हावी हो गई है। इससे कुंठित हो कर आखिरकार वे सीधे अफसरों पर ही हमला कर बैठीं और अफसर लामबंद हो गए। इस प्रकार जनप्रतिनिधियों व अफसरों के बीच एक नए विवाद का जन्म हो गया। अब तराजू सरकार के हाथ में आ गई है।
इसी प्रकार अजमेर में मेयर कमल बाकोलिया को भी काम करने का फ्री हैंड इसलिए नहीं है कि यहां भी भाजपा पार्षदों की संख्या ज्यादा है और निगम की साधारण सभाओं में टकराव अवश्यंभावी हो गया है। उनकी इस कमजोर स्थिति का परिणाम ही है कि वे ठीक से काम नहीं कर पा रहे और जिला प्रशासन को निगम के सफाई, अतिक्रमण व यातायात जैसे मूलभूत कामों में हस्तक्षेप का मौका मिल गया। हालांकि इसमें जिला प्रशासन की मंशा पर शक नहीं किया जा सकता, लेकिन इससे निगम की स्वायत्तता पर तो प्रश्नचिन्ह लग ही गया है। हालांकि यह सही है कि निगम की असफलताओं की वजह से ही प्रशासन को दखल करने का मौका मिला है, लेकिन इससे जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले तो अपने आपको ठगा सा महसूस कर रहे हैं। यूं मेयरों को सीधे काफी अधिकार दिए हुए हैं, लेकिन परिस्थितियां ही ऐसी हैं कि वे उनका ठीक से इस्तेमाल नहीं कर पा रहे। कुल मिला कर दोनों ही निगमों में स्थिति ऐसी आ गई है कि चुने हुए जनप्रतिनिधियों का तो कोई मतलब ही नहीं रह गया है और अफसरों को मनमानी करने का मौका मिला हुआ है।
अगर जरा गौर करें कि ऐसी स्थितियां उत्पन्न क्यों हुई हैं तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि यह केवल इसी कारण से है कि सरकार ने इस बार निकाय चुनावों में निकाय प्रमुखों का स्वतंत्र चुनाव करवाया है। वस्तुत: जिस वक्त निकाय प्रमुखों का चुनाव सीधे जनता के वोटों से कराने का निर्णय किया गया था, तभी यह समझ लेना चाहिए था कि निकाय प्रमुख तो एक पार्टी का और बोर्ड दूसरी पार्टी का बन सकता है और उससे समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं, लेकिन उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। इसी का परिणाम ये हुआ कि अजमेर व जयपुर सहित अनेक निकायों में मेयर, सभापति व अध्यक्ष तो एक पार्टी का है, जबकि बोर्ड दूसरी पार्टी का बन गया। जयपुर व अजमेर में चल रहा टकराव तो उभर कर आ गया, जबकि अन्य में अंदर ही अंदर संघर्ष जारी है और इसी के कारण काम प्रभावित हो रहे हैं। इन संस्थाओं को जो कर्तव्य है, उसे वे पूरा नहीं कर पा रही हैं।
स्थानीय निकायों को लेकर और भी विसंगतियां हैं। चुनाव होने के बाद में सरकार को ये समझ में आया कि नगरपालिका कानून कि धारा 53 दिक्कत वाली है, जिसके तहत निकाय अध्यक्षों के खिलाफ चुनाव के एक साल बाद अविश्वास प्रस्ताव लाया जा सकता है। सरकार को लगा कि यह ठीक नहीं है तो उसने इस धारा को हटा दिया। हालांकि बाद में हाईकोर्ट ने उस पर रोक लगा दी। ऐसी स्थिति में मेयर चाह कर भी ईमानदारी से काम नहीं कर सकता, क्योंकि उसे कुर्सी पर बने रहने के लिए पार्षदों की गलत अपेक्षाओं को भी पूरा करना होगा। वस्तुत: धारा 53 का प्रावधान दोनों ही पार्टियों के लिए एक बड़ा सरदर्द है, लेकिन ऐसा समझा जाता है कि सरकार को ज्यादा चिंता अपने निकाय प्रमुखों की हुई। बहरहाल, अब चर्चा है कि सरकार इसके लिए विधानसभा में प्रस्ताव पारित करेगी। सरकार ने एक चालाकी ये की है कि धारा 39 को बरकरार रखा है, जिसके तहत वह चाहे तो किसी भी निकाय प्रमुख को हटा सकती है। यानि सरकार के इस कदम से जहां उसके निकाय प्रमुख तो सुरक्षित रखना चाहती है, वहीं विपक्षी दल भाजपा व अन्य के प्रमुखों पर तलवार लटका के रख रही है।
हालांकि कांग्रेस की अंदरूनी कलह के कारण सरकार अभी तक निकायों में पार्षदों का मनोनयन नहीं कर पाई है, लेकिन सुना है कि सरकार मनोनीत पार्षदों को भी वोट देने का अधिकार देने का मानस रखती है। इस आशय के संकेत स्वायत्त शासन मंत्री शांति धारीवाल दे चुके हैं। यदि उसे लागू कर दिया गया तो यह लोकतंत्र के लिए काला अध्याय बन जाएगा। भला राजनीतिक आधार पर मनोनीत पार्षद को चुने गए पार्षद के बराबर कैसे माना जा सकता है? ऐसे में चुने हुए बोर्ड का तो कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा। यदि सरकार ने यह प्रावधान किया तो अनेक निकायों में जहां बोर्ड विपक्ष का है, वहां कांग्रेस का बहुमत हो जाएगा और वे मनमानी करने को उतारु हो जाएंगे। जनता के माध्यम से चुन कर आए भाजपा पार्षद केवल मुंह ही ताकते रहेंगे। हालांकि यह फिलहाल काल्पनिक ही है, लेकिन यदि ऐसा करने की गलती की भी गई तो उसे कोर्ट में चुनौती दिया जाना भी पक्का है।

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