शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

सरकार ने खेली दोहरी चाल

दखल
सरकार ने खेली दोहरी चाल
नगर निकाय चुनाव के काफी दिन बाद सरकार को ये समझ में आ गया कि मौजूदा नगरपालिका कानून उसके लिए अनुकूल नहीं है, इसलिए उसने इसकी एक धारा 53 को हटा ही दिया है। धारा 53 के तहत निकाय अध्यक्षों के खिलाफ चुनाव के एक साल बाद अविश्वास प्रस्ताव लाया जा सकता था। अनेक निकायों में मेयर, सभापति व अध्यक्ष तो एक पार्टी का है, जबकि बोर्ड दूसरी पार्टी का बन गया था। हालांकि यह दोनों ही पार्टियों के लिए एक बड़ा सरदर्द था, लेकिन सरकार को चिंता हुई कि कहीं एक साल पूरा होते ही उसके प्रमुखों को हटाने की मुहिम न चल जाए। इस कारण धारा 53 को ही हटा दिया गया। अब किसी भी निकाय प्रमुख के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव नहीं लाया जा सकेगा। लेकिन साथ ही सरकार ने एक चालाकी ये की है कि धारा 39 को बरकरार रखा है, जिसके तहत वह चाहे तो किसी भी निकाय प्रमुख को हटा सकती है। यानि सरकार के ताजा कदम से जहां उसके निकाय प्रमुख तो सुरक्षित हो गए हैं, वहीं विपक्षी दल भाजपा व अन्य के प्रमुखों पर तलवार लटकी ही हुई है।
वस्तुत: जिस वक्त निकाय प्रमुखों का चुनाव सीधे जनता के वोटों से कराने का निर्णय किया गया था, तभी यह समझ लेना चाहिए था कि निकाय प्रमुख तो एक पार्टी का और बोर्ड दूसरी पार्टी का बन सकता है और उससे समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं, लेकिन उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। कानून बनाने वालों की बुद्धि पर तरस आता है कि उन्होंने धारा 53 का हास्यास्पद प्रावधान रख छोड़ा था। उन्होंने यह भी विचार नहीं किया कि जिस निकाय प्रमुख को सीधे जनता ने चुना है, उसे अन्य समीकरणों के तहत अधिक मात्रा में चुन कर आए पार्षदों को एक साल बाद हटाने का अधिकार दिया हुआ था। यह तो नीतिगत रूप से ही गलत है। एक अर्थ में देखा जाए तो सरकार ने अब जा कर नीतिगत सुधार किया है, मगर साफ नजर आता है कि ऐसा उसने अपने निकाय प्रमुखों को बचाने के लिए ही किया है। अजमेर व जयपुर में तो उसके मेयर निशाने पर ही थे। एक साल बाद निश्चित रूप से अविश्वास प्रस्ताव के जरिए उन्हें हटा दिया जाता, क्यों कि दोनों स्थानों पर भाजपा पार्षदों की संख्या ज्यादा है। ताजा हालत भी ये है कि दोनों पार्टियों के बीच टकराव की स्थिति बनी हुई है। इसका नुकसान तो जनता ही भुगत रही है। जयपुर में हाईकोर्ट के आदेश के बाद विभिन्न समितियों को गठन किया गया है और अजमेर में हाईकोर्ट ने कारण बताओ नोटिस जारी कर रखा है। असल में दिक्कत ये है कि भाजपा पार्षदों की संख्या अधिक होने के कारण अधिकतर समितियों में उनका वर्चस्व कायम हो सकता है। इसी कारण अजमेर के मेयर कमल बाकोलिया समितियों का गठन करने से झिझक रहे हैं। हालांकि तर्क ये दिया जा रहा है कि चूंकि बोर्ड में बहुमत वाली भाजपा ने अभी तक विपक्षी दल के नेता का चुनाव नहीं किया है, इस कारण समितियां गठित करना संभव नहीं है, मगर वस्तुस्थिति ये है कि कमल बाकोलिया किंकर्तव्यविमूढ़ से हैं। हालांकि पिछले दिनों इस सिलसिले में कवायद भी हुई, मगर सिरे नहीं चढ़ पाई। ऐसे में समितियों का गठन नियत समय पर न करने का मुद्दा हाईकोर्ट में चला गया और वहां से नोटिस जारी हो गया।
जानकारी ये भी है कि सरकार मनोनीत पार्षदों को भी वोट देने का अधिकार देने जा रही है। इस आशय के संकेत स्वायत्त शासन मंत्री शांति धारीवाल दे चुके हैं। यदि उसे लागू कर दिया गया तो यह लोकतंत्र के लिए काला अध्याय बन जाएगा। भला राजनीतिक आधार पर मनोनीत पार्षद को चुने गए पार्षद के बराबर कैसे माना जा सकता है? ऐसे में चुने हुए बोर्ड का तो कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा। यदि सरकार ने यह प्रावधान किया तो अनेक निकायों में जहां बोर्ड विपक्ष का है, वहां कांग्रेस का बहुमत हो जाएगा और वे मनमानी करने को उतारु हो जाएंगे। जनता के माध्यम से चुन कर आए भाजपा पार्षद केवल मुंह ही ताकते रहेंगे। ऐसा प्रतीत होता है कि अगर सरकार ने यह प्रावधान किया तो उसे कोर्ट में भी चैलेंज किया जाएगा। देखते हंै क्या होता है।

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